Sangharsh By Avinash Ranjan Gupta
संघर्ष
बन
गया हूँ हाँ प्रभु मैं अंदेशों का आहार,
नत नमन आ खड़ा हुआ हूँ आज मैं तेरे मुखद्वार,
कष्ट के मेरे इन क्षणों में एक तू ही मेरा आधार,
दिव्य दृष्टि दान देकर करो प्रभु भक्त का उद्धार।
इस जगत के तुम हो स्वामी, हम है प्रभु तेरे दास,
लीन हूँ मैं तुझमें प्रभु लेकर यही एक आस,
पूरी होगी कामना मेरी मन में मेरे है विश्वास,
अब है आतुर मन-नयन, करो अंदेशों का विनाश।
इतने में एक दीन आया, खोले खुद की खाली झोली,
कर दी उसने भंग पूजा मेरी निकली कड़वी बोली,
माँगते हो भीख तुम करते हो कर्म का अपमान,
कर्म ही जीवन तुम करो कर्म का सम्मान।
सुन वचन मेरे वो निकला नज़रों से मेरे पार,
छोड़ गया मेरे लिए वो प्रशनों का अंबार,
खुद को पाया उसी दशा में जिसकी की भर्त्सना अभी,
एक ही पल में भिखारी मुझको दिखने लगे सभी।
दिव्य दृष्टि मिल गई तो लगा देखने चहुँ ओर सहर्ष,
दिखी चीज़ें मुझे अनेक पर मूल में था सिर्फ संघर्ष,
संघर्ष से ही जीवन-ज्योति संघर्ष से ही जीवन उत्कर्ष,
संघर्ष से सब कुछ है संभव कर लिया मैंने विमर्श।
देखा मैंने सूर्य को संघर्ष में रमते हुए,
बादलों की कालिमा को चीर कर बढ़ते हुए,
दान अपनी कर का देकर जीवों से कहते हुए,
तुम भी जीवन में बढ़ो बृहद संघर्ष कराते हुए।
संघर्ष का ही रूप है सरवर का वो सरसिज कमल,
पंक में पल कर भी निज को नित्या रखता है निर्मल,
सृष्टि को सौरभ है देता उत्साह उसमें अविरल,
इसलिए टी भूति-भारती हैं
आसीन उस पर अटल।
वृक्ष भी करते हैं संघर्ष आँधियों- तूफानों से,
कर जड़ें मजबूत अपनी लड़ते हैं जी-जान से,
और मजबूत हो वे जाते कर के इंका सामना,
कौन है इस लोक में बिन संघर्ष महमानव बना?
संघर्ष के अभाव में ये शरीर शव के समान है,
संघर्ष की ज्योति हो जड़ में तो उसमें भी जान है,
नृवृति के नेपथ्य का निर्मूल नाश करते हुए,
तुम बढ़ो अक्षर के पथ पर संघर्ष सहर्ष करते हुए।
अविनाश रंजन गुप्ता
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