Puraskaar - Odisha Ratna By Avinash Ranjan Gupta
पुरस्कार - ओडिशा रत्न
आज सुबह 11 बजे के आस-पास डाकिए ने मेरे
घर पर एक लिफ़ाफ़ा छोड़ा। लिफ़ाफ़ा हमारे राज्य
सरकार का था जिसे खोलने पर पता चला कि
मेरे द्वारा विभिन्न त्रासदियों में समय-समय पर दिए गए सहायता राशि (Donation) के लिए राज्य सरकार मुझे ‘ओडिशा रत्न’ के सम्मान से सम्मानित करना चाहती
है और इसलिए एक निश्चित तिथि में उन्होंने मुझे सपरिवार राजधानी स्थित राज्यपाल
सदन बुलाया है।
इस सम्मान एवं निमंत्रण पत्र के बारे
में जब मेरे बच्चों को पता चला तो पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि मुझे कभी-भी
ऐसा सम्मान मिल सकता है खास करके तब जब बात सहायता राशि की हो। उनका ऐसा सोचना
लाजिमी भी था क्योंकि बचपन से ही उन्होंने मुझे पाई-पाई जोड़ते देखा है और ऐसे
दृश्य में सहायता राशि की बात तो दिवा
स्वप्न के समान है। मानसिक संघर्ष करते
हुए उन्होंने इस बात को मान भी लिया कि मैंने कभी कोई छोटी-मोटी सहायता राशि का
दान दिया भी होगा परंतु इसके एवज़ में ‘ओडिशा रत्न’ सम्मान ये
बात उन्हें हजम नहीं हो रही थी।
मुझे तीन बच्चों के पिता होने का
सौभाग्य प्राप्त है। पहले बच्चे के पैदा होने पर माँ-बाप का फर्ज़ अदा करते हुए
हमने- उसका लालन-पालन किया। समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए हम
दोनों ने एक बच्चे को गोद लिया और पत्नी की इच्छा को पूरी करने के लिए हमने अपनी तीसरी
संतान के रूप में एक बेटी को जीवन दिया और आज की तारीख में मेरा बड़ा बेटा हाईकोर्ट
में वकील है, मेरा मँझला बेटा सरकारी
अस्पताल में डॉक्टर और मेरी प्यारी परी सरकारी महाविद्यालय में अर्थनीति की प्राध्यापिका
। मेरी जीवनसंगिनी एक आदर्श गृहिणी हैं एक पतिव्रता पत्नी और समझदार माँ हैं। इन
सबके पालन-पोषण तथा इन सबको इनके मुकाम तक पहुँचाने के लिए मैंने जिस पेशे को अपनाया था वह शिक्षक का पेशा था और
आज भी मैं शिक्षक के पेशे में ही हूँ परंतु इसकी अंतिम सीढ़ियों पर।
मेरे तीनों बच्चे मन ही मन यह सोच रहे
थे कि पिताजी को यह सम्मान कहीं मेरी वजह से तो नहीं मिला। मेरा बड़ा बेटा यह
अनुमान लगा रहा था कि विस्थापन में मैंने जिनकी ज़मीनें वापिस दिलवाई थीं और जब मेरी
इस जीत पर पूरी कचहरी में मेरी भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी तो प्रेस-कोन्फ़ेरेंस
के समय मैंने अपनी जीत का सारा श्रेय पिताजी को दे दिया था। शायद इसी वजह से
पिताजी को यह सम्मान मिला है।
मेरा दूसरा बेटा यह अनुमान लगा रहा था
कि जब कुछ दिनों पहले पास के एक गाँव में महामारी फैल गई थी तो चार महीने तक उस
गाँव में रहकर मैने पूरी शिद्दत से रोगियों की सेवा की थी और जब मेरी चर्चा
स्थानीय अख़बारों में हुई तो अपने इस लगन के पीछे मैंने पिताजी को ही अपना
प्रेरणास्रोत बताया था कहीं इस वजह से पिताजी को यह सम्मान मिल रहा हो।
हमारी आत्मा से निकली मेरी बेटी यह मान
रही थी कि कुछ दिनों पहले योजना-आयोग के बुलावे पर मैं दिल्ली गई थी और आधुनिक
अर्थनीति, भारतीय बाज़ार और विदेश व्यापार की नीतियों में
बदलाव हेतु मैंने जो सुझाव दिए थे वे सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिए गए थे। मेरी इस
उपलब्धि पर जब उन्होंने मेरी राय पूछी तो मैंने पिताजी को ही अपना आधुनिक अर्थनीति
शास्त्र का शिक्षक बताया था। हो न हो इसी वजह से ही पिताजी को यह सम्मान मिल रहा
है।
मगर असली बात तो यही थी कि मुझे मेरे
वास्तविक सहायता राशि के अनुदानों के लिए ही सम्मानित किया जा रहा था। सच बोलूँ तो
मुझे कभी भी किसी भी पुरस्कार की आशा न थी ये सब तो मैं अपनी खुशी के लिए किया
करता था। बिना किसी को अपनी सहायता राशि के अनुदानों के रहस्य के बारे में बताए
सपरिवार निर्धारित तिथि में राजधानी के राज्यपाल सदन पहुँच गया।
वहाँ मेरा और मेरे परिवार के सदस्यों का
अच्छा-खासा स्वागत हुआ। मैं मंच पर राज्यपाल तथा अन्य अतिथियों एवं अधिकारियों के
साथ मंचासीन हुआ। मंच पर प्रोजेक्टर की मदद से अन्य अतिथियों के साथ मेरा भी नाम
दिखाया जा रहा था। सभा का संचालन बी.के.त्रिपाठी कर रहे थे। त्रिपाठी जी ने सभा को मेरा विस्तृत परिचय दिया, मेरी प्रशंसा में उन्होंने अनेक वाक्य कहे, मानो, मैं गरीबों का मसीहा हूँ। सारे दर्शक सारी
बातों को ध्यान से सुन रहे थे मगर उनकी आँखें उस समय खुली की खुली रह गईं जब
त्रिपाठी साहब ने इस रहस्य का उद्घाटन किया कि अब तक मैंने त्रासदी पीड़ितों को 87
लाख रुपए की सहायता राशि बतौर अनुदान दी है। ये सुनते ही कितनों को अपने कानों पर
यकीन ही नहीं हुआ। मेरे बेटे-बेटी एक दूसरे का चेहरा देखने लगे मानो मूक भाषा में
पूछ रहे हो क्या मैंने वही सुना जो तुमने सुना। तभी त्रिपाठी जी ने मेरे सारे अनुदानों
का विवरण प्रोजेक्टर के माध्यम से पर्दे से पर दिखा दिया, 87
लाख रुपए की सहायता राशि का विवरण पर्दे पर
साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रहा था।
इसके बाद मुझे मध्य-मंच पर बुलाया गया
और राज्यपाल ने पुरस्कार, मान-पत्र और
अंग वस्त्र से मुझे सम्मानित किया और मुझसे अनुरोध किया कि सभा में उपस्थित सज्जनों
को दो शब्द कहूँ और मैंने कहना शुरू किया-
यहाँ पर उपस्थित सभी लोगों को मेरा सादर
प्रणाम। सबसे पहले राज्य का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार ‘ओडिशा रत्न’ से मुझे सम्मानित करने के लिए मैं राज्य
सरकार का आभार प्रदर्शन करना चाहूँगा कि उन्होंने मुझे इस काबिल समझा। यहाँ
उपस्थित जितने भी लोग मुझे जानते हैं उन्हें यह पता ही होगा कि पेशे से मैं एक
शिक्षक हूँ और शिक्षक के पास शिक्षा के अलावा प्राय: सभी भौतिक चीज़ों का अभाव ही
रहता है। Teacher is a poor creature।
जब सच्चाई यह है तो इतनी बड़ी राशि का दाता मैं कैसे? सभी यही
जानना चाहते हैं यहाँ तक कि मेरे बच्चे भी।
सच कहूँ तो ये पैसे मेरे नहीं थे, ये पैसे उन्हीं लोगों के थे जिन्हें मैने उनके
कष्ट के क्षणों मे सरकार के माध्यम से उन तक पहुँचाया है। मेरा नाम अविनाश रंजन है
ये मुझे जानने वाले जानते हैं पर मेरा असली नाम कुँवर अविनाश प्रताप राठौड़ है और
मैं एक शाही परिवार से संबंध रखता हूँ। अपने जीवन के बाल्यावस्था में ही मैंने यह
अनुभव कर लिया था कि अगर संपत्ति ज़रूरत से ज़्यादा हो तो विपत्ति का कारण बन जाती
है। मेरे पूर्वजों ने अपनी विलासिता भरी जीवन शैली के सिलसिले को कायम रखने के लिए
आम जनता का यथा-संभव शोषण किया। उनके पास रहे धन के अपव्यय का ब्योरा हम इतिहास के
पन्नों में पढ़ सकते हैं। अगर उन्होंने अपने धन का व्यय शोध,
अनुसंधान और आविष्कार के कामों में किया होता तो भारत कभी भी किसी आक्रांताओं (Invaders) का शिकार नहीं बनता और न ही कभी गुलामी की बेड़ियों में बँधता। अपितु, आज का भारत कुछ और ही होता, शत-प्रतिशत समृद्धि का पर्याय।
इस संपत्ति के कारण ही मेरे दादाजी की
मौत हुई थी और भरी जवानी में मेरे पिताजी की हत्या। किशोरावस्था में ही मुझे मेरे
हिस्से संपत्ति मिल गई थी जिसमें से मेरे नाम की ज़मीन को मैंने विद्यालय निर्माण
के लिए दान में दे दिया और पैसों को उसके सर्वोत्तम सदुपयोग के लिए किश्त दर किश्त
सहायता राशि के रूप में त्रासदी में पीड़ित
लोगों को।
मरे पास रहे पैसे की जानकारी मेरी
जीवनसंगिनी के अलावा घर और जान-पहचान के किसी भी व्यक्ति को नहीं थी पर उसने कभी
भी किसी भी चीज़ के लिए ज़िद नहीं की, मैं अपने आपको को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे ऐसी पत्नी मिली जो हर
स्थिति में मेरा साथ देने को तैयार रही। अपने जीविकोपार्जन के लिए मैंने बहुत
सोच-समझ कर शिक्षक का पद चुना और इस पेशे में आने के बाद बाद मुझे पूरा यकीन हो
गया कि इससे अच्छा पेशा मेरे लिए हो ही नहीं सकता था।
मैंने अपना अधिकतर जीवन गरीबी में ही
बिताया है फिर भी रिश्तों में हमेशा मिठास बनी रही, और मेरे घर के सभी सदस्य कभी भी कर्तव्यविमुख नहीं हुए और इन सबके केंद्र
में जो हम सभी को नियंत्रित करती थी वो थी मेरी पत्नी - पूजा ।
मेरा मानना है कि अगर बच्चों को इस बात
का इल्म हो जाए कि उनके वालिद के पास लाखों रुपए हैं तो उनमें चीजों को पाने की इच्छा
और भी प्रबल हो जाती हैं और वे जिद्दी बन जाते हैं और हम यह जानते ही हैं कि चीजों
के लिए ज़िद करने वाले बच्चों का भविष्य कैसा होता है? अगर मैं भी अपने बच्चों की ज़िद पूरी करने के लिए
अपने गुप्त धन का व्यय करता रहता तो न ही मेरे बच्चे आज अपने-अपने लक्ष्य तक
पहुँचते और न ही मैं यहाँ।
आवश्यकता से अधिक धन अपने साथ कैसी-कैसी
समस्याओं को साथ लेकर आता है यह तो आपको पता ही होगा। मेरे बच्चे बचपन में जब किसी
ऐसे चीजों के लिए ज़िद किया करते थे जिनकी अहमियत नहीं होती थी तो मैं उन्हें अपनी
कमाई और खर्च का सारा विवरण बता दिया करता था। सत्य से परिचय हो जाने की बाद वे
ज़िद करना तो छोड़ देते थे पर मैं उन्हें –प्रेरणा के रूप में पढ़ाई की महता बताना न
भूलता था। मैं उनसे यही कहता था कि अगर आप सचमुच ये सब पाना चाहते हैं तो अच्छे से
पढ़ाई कीजिए आप जो पाना चाहते हैं वे सब पा सकेंगे। मैंने उनके सामने उनके सुनहरे
सपनों को बुना जिसे सच करने के लिए उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ी और अंत में वो दिन आ
ही गया जब उन्होंने अपने-अपने निर्धारित लक्ष्य को पा लिया।
जिस प्रकार सामानों से लदी गाड़ी
धीरे-धीरे और सावधानी से आगे बढ़ती है और अपने गंतव्य पर ही जाकर रुकती है ठीक उसी
प्रकार ज़िम्मेदारियों के भार से दबा आदमी सदा अपने कर्म में ही रमा रहता है। यही
कारण है कि मेरे परिवार और छात्र अभी तक एक संतुलित जीवन, संतुलित स्वास्थ्य के लाभ से पोषित हैं।
आज समाज में जितनी भी विषमताएँ देखी जा
रही हैं, इसके मूल कारणों
में कहीं न कहीं पैसा की भी भूमिका है क्योंकि समाज के कुछ लोगों ने सही-गलत का सिक्का
जमाकर विपुल धन एकत्रित कर लिया है और और मनचाहे तरीके से धनहीनों का शोषण करने
में लगे हुए हैं।
आज जिस गति से प्राकृतिक दोहन हो रहा है
उससे कोई भी अंजान नहीं है और न ही उसके परिणामों से जो असह्य गर्मी, बिन मौसम बरसात, सुनामी जैसे
प्रलय के रूप में यदा-कदा हमें त्रस्त करते रहते हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं के मूल
में अशिक्षा और धन-लिप्सा रूपी कीटाणु ही मानव मस्तिष्क को दूषित कर चुकी है इसीलिए
प्राकृतिक दोहन के दुष्परिणामों को देखकर
भी लोग देखते नहीं और जानकार भी न जानने का नाटक करते हैं।
आज का समाज कुछ ऐसा हो गया है कि अगर
लोगों को जानवर कह दिया जाए तो वे नाराज़ हो मगर शेर कह दिया जाए तो खुशी से झूम
उठेंगे जबकि शेर भी जानवर ही होता है। ठीक उसी प्रकार आज ये सभी को पता है कि समाज
के बिगड़ते हालातों के लिए कौन जिम्मेदार हैं? यह सभी को पता है परंतु जब उन्हें इस बात का एहसास दिलाया जाता है कि
समाज के बिगड़ते हालात के पीछे उनकी भी भूमिका है तो वे लाल-पीले हो जाते हैं तथा
दूसरों पर दोषारोपण करने लगते हैं। समाज कभी भी अपनी पुरानी एवं आदर्श स्थिति में
किसी एक के बदलने से नहीं लौटेगा बस इस
बात को हथियार बनाकर वे दूसरों का हवाला देने लगते हैं। जबकि सच तो यह है कि अकेला चना भले ही भाड़ न फोड़
सके परंतु उस अकेले चने में इतनी काबलियत होती है कि वह लाखों चने पैदा कर सकता है।
मैं जब इस दुनिया मैं आया था तो अपने
साथ कुछ भी नहीं लाया था और रुखसत होते समय भी नज़ारा ऐसा ही होगा मैंने जो भी
संग्रह किया वो मैंने समाज को वापस लौटा दिया है। न ही मुझे कभी इस बात की चिंता
सताती है कि मेरे बाद मेरे बच्चों को क्या होगा क्योंकि मैंने उन्हें इस काबिल बना
दिया है कि वे अपना भला-बुरा और समाज के प्रति अपने दायित्व को अच्छे से समझते
हैं।
मेरे द्वारा त्रासदी पीड़ितों को दी गई सहायता
राशि, मेरे नज़र में कोई बड़ा काम नहीं है मैंने तो सिर्फ़ इस
दुनिया में रहने का किराया दिया है और वही किया जो एक ज़िम्मेदार नागरिक को करना
चाहिए। अगर आप लोग भी मेरे विचारों से सहमत हैं तो मेरी वाणी को अपने जीवन में
क्रियान्वित करें। विश्वास मानिए आपके अपने
जीवन में भी चौंकाने वाले अच्छे नतीजे सामने आएँगे।
भाषण के बाद राज्यपाल जी ने मुझे गले से
लगा लिया और सहर्ष मेरे साथ अनेक फोटो खिंचवाने लगे और धीरे से उन्होंने मुझसे कहा, “आप सचमुच महान व्यक्ति है।” मेरी पत्नी के आँखों में
खुशी के आँसू थे मेरे बच्चे मुझे इज्ज़त के शिखर पर पहुँचा चुके थे मेरे जानने वाले
मुझसे हाथ मिलने के लिए लालायित थे और इन सबसे अलग मैं यह सोच रहा था कि अब और किस
तरह से मैं मानवजाति का भला कर अपने जीवन को सार्थक करूँ।
अविनाश रंजन गुप्ता
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