Parvat Pradesh Men Pavas kavita ka Shabdarth sahit Vyakhya By Avinash Ranjan Gupta
पर्वत देश में पावस
शब्दार्थ
1.
पावस- वर्षा
2.
ऋतु- मौसम
3.
पर्वत- पहाड़
4.
प्रांत – राज्य
5.
पल-पल- क्षण-क्षण
6.
परिवर्तित- बदला
हुआ
7.
प्रकृति- कुदरत
8.
वेश- रूप
9.
मेखलाकार-
करघनी के आकार का
10.
आकार- गढ़न या बनावट
11.
आपार- विशाल
12.
सहस्र- हज़ार
13.
दृग- नेत्र, नयन
14.
सुमन- फूल
15.
अवलोक- देख
16.
बार-बार- लगातार
17.
जल- पानी
18.
निज- अपना
19.
महाकार- विशाल रूप
20.
चरण- पद
21.
पला-पोषित
22.
ताल- तालाब
23.
दर्पण- आईना
24.
गिरि- पर्वत
25.
गौरव- बड़प्पन
26.
मद- मस्ती
27.
उत्तेजित- तीव्रता
28.
निर्झर- झरना
29.
उर- हृदय
30.
उच्चाकांक्षाओं- ऊँची
इच्छाएँ
31.
तरुवर- पेड़ों का
समूह
32.
नीरव- शांत
33.
नभ- आकाश
34.
अनिमेष- बिना पलक झपकाए
35.
अटल- दृढ़
36.
अचानक- एकाएक
37.
भूधर- पहाड़
38.
पारद- एक प्रकार का
सफ़ेद धातु
39.
पर- पंख
40.
रव- ध्वनि
41.
भू- पृथ्वी
42.
अंबर- आकाश
43.
धरा- पृथ्वी
44.
सभय- भय के साथ
45.
शाल- एक प्रकार का
पेड़
46.
यों- इस तरह
47.
जलद- मेघ
48.
यान- परिवहन का
माध्यम
49.
विचर-विचर- घूम-घूम
50. इंद्रजाल- जादूगरी
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित
प्रकृति-वेश
मेखलाकार
पर्वत आपार
अपने
सहस्र दृग सुमन फाड़
अवलोक
रहा है बार-बार
नीचे जल
में निज महाकार,
-जिसके
चरणों में पला ताल
दर्पण-सा
फैला है विशाल !
1.
वर्षा ऋतु में पर्वतीय प्रदेशों की आपार सुंदरता तथा पल-पल
प्रकृति द्वारा नवीन रूप धारण कर लेना मन को मोह लेता है। करघनी के आकार की ढाल
वाले पर्वतों की दूर तक फैली पर्वतमालाओं पर अनगिनत फूल सुशोभित हैं, लगता है मानो पर्वत
अपनी पुष्प रूपी आँखों से तलाब में हैरानी से अपनी विशालता को देख रहा है। पर्वतों
के चरणों में तालाब दर्पण-सा फैला हुआ है तथा पर्वतों का महाकार उसके जल में
प्रतिबिम्बित हो रहा है।
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-सी सुंदर
झरते है झाग भरे निर्झर !
गिरिवर
के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं
से तरुवर
हैं झाँक
रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर ।
2.
पहाड़ों से झरते हुए झरने
मधुर स्वर उत्पन्न करते हैं। लगता है ये झरने पर्वतों की विशालता और महानता
की यशोगाथा गा रहे हैं। इनसे निकलता हुआ मधुर स्वर तथा इनकी अनुपम छ्टा तन-मन में
अभूतपूर्व जोश, उमंग व उल्लास का संचार
कर देती है। झरनों से गिरती जल की बूंदें मोती की लड़ी-सी दिखाई पड़ती हैं तथा
झरनों। का जल सुंदर सफ़ेद फेन बनाता है। पर्वतों पर बड़े-बड़े वृक्ष सुशोभित हैं।
लगता है, मानो ये पर्वतों की ऊपर उठाने की कामनाएँ हैं। ये
वृक्ष शांत आकाश की ओर एकटक देखते हुए अत्यंत चिंतातुर से प्रतीत होते हैं।
उड़ गया अचानक लो भूधर
फड़का अपार पारद के पर !
रव शेष रह गए निर्झर !
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस
गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ जल गया ताल!
यों जलद यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।!
3.
पर्वतीय प्रदेश में पलभर में बादलों
के आने से समस्त दृश्य
अदृश्य हो जाता है तो कवि कह उठते है कि लगता है कि बादलों के पंख लगाकर पलभर
में ही पहाड़ वहाँ से उड़कर कहीं चले गए हैं। अब कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। मात्र
झरने की मधुर आवाज़ उस निस्तब्ध
वातावरण की मनोरमता में वृद्धि
कर रही है। अचानक लगता है, मानो आकाश ही धरती पद टूट पड़ा है। तथा भयवश शाल के वृक्ष धरती की गोद में समा
गए हों या मानो वह तालाब ही जल गया है और उसी का धुआँ बादल की तरह चारों
दिशाओं में व्याप्त है।
तभी अचानक बादल छँट जाते
हैं। सूर्य के प्रकट होने से आकाश में बड़ा-सा इंद्रधनुष दिखाई देता है, मानो
इंद्र बादल रूपी विमान में घूम-घूम कर अपनी जादूगरी की माया का प्रदर्शन कर रहे
हों।
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