Mujhe Awasar Mila Hai By Avinash Ranjan Gupta
मुझे अवसर मिला है
पहली बार समुद्र की गहराइयों में मैंने एक
विचित्र प्राणी को तैरते देखा। उसके शरीर से प्रकाश निकल रहा था और वायु के
बुलबुले भी। अपने अभी तक के लघु जीवन में मैंने ऐसा विस्मित कर देने वाला प्राणी
नहीं देखा था। मैं उसे कौतूहलता से देख रहा था और लगातार यह जाने की कोशिश कर रहा
था कि आखिर ये कैसा प्राणी है जिसमें इतने सारे अद्भुत गुण हैं। मैं उसकी हरकतों
को गौर से देख रहा था। थोड़ी देर बाद वह ऊपर की ओर जाने लगा। उसकी हरकतें अनायास ही
मुझे उसके पीछे जाने के लिए विवश करने लगीं। पानी की ऊपरी सतह पर पहुँचकर वह एक
स्थिर जहाज़ पर चढ़ गया और उसने अपनी विचित्र पोशाक को उतार डाला। उस विचित्र प्राणी
के बारे में अनुभवी मछलियों से पूछने पर पता चला कि वो विचित्र प्राणी और कोई नहीं
बल्कि इंसान था। इंसान इस दुनिया में सबसे ताकतवर है वह जो चाहे वो कर सकता है। अब
मेरी भी यही इच्छा होने लगी कि मैं भी मनुष्य की योनि में जन्म लूँ। एक दिन इसी सोच
में मैं समुद्र की ऊपरी सतह पर तैर रहा था कि अचानक मैंने अपने आप को एक जाल में
फँसा पाया और थोड़ी ही देर में मेरी जीवन लीला का अंत हो गया।
अंडे
से बाहर निकलते समय मुझे काफी तकलीफ हुई परंतु इस नई दुनिया में आने और इसे देखने
की लालशा में मानो वह संघर्ष लुप्त-सा हो गया। पेड़ की डाल पर एक घोंसले में मेरे
जीवन की शुरूआत हुई। चारों ओर छाई हरियाली को देखकर मैं सदा प्रसन्न रहता था। कुछ ही
दिनों के पश्चात मैंने उड़ना भी सीख लिया। पहले कुछ दिनों तक मुझे लगता था कि पक्षी
जीवन सबसे श्रेष्ठ जीवन है, जहाँ चाहे वहाँ उड़कर
चले जाओ। अचानक एक दिन मैंने बहुत बड़ा पक्षी देखा, बहुत बड़ा! उसकी आकृति का पूरा अंदाजा लगा पाना भी मेरे लिए
नामुमकिन था। उस पक्षी के पंख स्थिर थे और भीषण गर्जन करते हुए आसमान को चीरता हुआ
द्रुत गति से आगे की ओर बढ़ रहा था। अपने घोंसले में लौटने के बाद मैं उसी विराट
पक्षी के बारे में सोचने लगा। शाम को अपने माता-पिता से इस विषय पर चर्चा के दौरान
पता चला कि वह कोई पक्षी नहीं बल्कि हवाई जहाज़ था जिसे इन्सानों ने बनाया है। इसकी
मदद से किसी भी लंबी यात्रा को कुछ ही घंटों में ही पूरा किया जा सकता है। बस फिर क्या था, मुझे इंसान की योनि में जन्म लेने की प्रबल इच्छा पैदा
हुई। इसी सोच के साथ मैं एक डाली पर बैठा इन्सानों को निहार रहा था कि तभी एक
पत्थर का टुकड़ा तीव्र गति से मेरे शरीर से टकराया और मेरे प्राण पखेरू उड़ गए।
वास्तव में मैं किसी के गुलेल के प्रहार का शिकार बन गया था।
पहली
बार जब मैंने आँखें खोली तो अपने आपको एक अँधेरी गुफा में पाया। रोशनी की ओर बढ़ते हुए
जिस दृश्य को मैंने सबसे पहले देखा था, वह एक घना जंगल था। मेरे लंबे-लंबे नाखून, नुकीले दाँत और भारी-भरकम पंजे मुझे मेरी ताकत का एहसास
दिला रहे थे। मेरा यह एहसास वास्तविकता से उस समय रू-ब-रू हो गया जब मैंने अपने
पिता को अपने जबड़े में एक हिरण को हमारे गुफा की ओर लाते देखा। कुछ ही दिनों के
बाद मुझे पता चला गया कि हमें जंगल के राजा होने का गौरव प्राप्त है। मुझे लगा कि
मेरा जीवन सफल हो गया। परंतु, अचानक एक दिन मैंने
अपने पिताजी को किसी से छिपते देखा। मुझे लगा कि वे हमारे खाने का प्रबंध करने के
लिए किसी शिकार पर घात लगा रहे हैं पर मामला बिलकुल उल्टा था, मेरे पिताजी पर दो पैर वाले किसी जानवर ने घात लगाया था
जिसका अंदाज़ा मेरे पिताजी को हो गया था और वे उससे छिप रहे थे। पूछने पर पता चला
कि वे इंसान हैं और आज के दौर के सबसे ताकतवर जानवर। पर मुझे इस बात पर यकीन नहीं
हुआ उसके हाथ में केवल एक ही छड़ी थी जो थोड़ी विचित्र थी। मुझे लगा कि मेरे पिताजी पर हमला करने वाले को मैं अभी सबक सिखाता हूँ और
इसी पितृभक्ति के कारण मैं उस दो पैर वाले जानवर की तरफ़ दौड़ पड़ा। मेरे पिताजी मेरा यह अदम्य उत्साह
देखकर खुश होने के बजाय मायूस हो गए। उस विचित्र छड़ी से चार इंच का एक कठोर धातु
मेरे शरीर में घुसा और मैं वहीं ढेर हो गया। मेरी आँखें बंद होने के दौरान मुझे
मेरे पिताजी का मायूस चेहरा दिखा और मैं सब समझ गया। आजकल मेरी खाल किसी रईस के घर
की दीवार की शोभा बढ़ा रही है।
इसी तरह
अनेक योनियों से गुजरते हुए अंत में प्रकृति के नियमानुसार मेरे नवजीवन की शुरूआत
किसी नवयुवती के गर्भ में होने लगी। मन ही मन मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरा सपना सच
होने वाला है परंतु दो महीने के बाद ही एक जहरीली घोल ने मेरे लघु विकसित शरीर का स्पर्श
किया और पलक झपकते ही मेरा सारा शरीर गल गया। मेरी भ्रूण हत्या हो गई। मेरे सारे
सपने धरे के धरे रह गए।
प्रकृति
किसी के साथ अन्याय नहीं करती। मनुष्य योनि में मेरे जन्म लेने की तिथि आ गई थी।
कुछ दिनों के बाद मैंने अपने आप को पुन: किसी युवती के गर्भ में पाया। इस बार खुशी
और ख्वाइशों के साथ-साथ संशय भी था। दो महीने का समय समाप्त हो जाने के बाद मैंने
अपने आपको संरक्षित घोषित कर दिया परंतु एक दिन एक विचित्र तरह की किरण मुझ पर पड़ी
वो भी एक बार नहीं चार-पाँच बार। इस प्रक्रिया के दौरान मुझे कंपन का आभास भी हो
रहा था। इस खौफ़ के गुजरने के कुछ महीने बाद 27 नवंबर 1985 को मेरा जन्म हो गया।
सोलह
संस्कारों से कुछ संस्कारों का सम्पादन हो गया था और विद्यारंभ संस्कार हेतु शिक्षा
के लिए मुझे अच्छे स्कूल भेजा गया इसका कारण यह था कि मैंने एक ऐसे परिवार में
जन्म ग्रहण किया था जिसकी आर्थिक स्थिति काफी अच्छी थी। सुख-सुविधाओं के सामान भरे
पड़े थे और मुझे अपनी शिक्षा खत्म करके अपने आनेवाले वंशजों के लिए भी ऐसा ही
आरामदायक माहौल तैयार करना था जिसकी सीख मुझे बचपन से मेरे पिताजी और दादाजी दिया
करते थे।
अभी
तक तो मैं यह समझ ही नहीं पाया था कि मुझे अपने जीवन में करना क्या है पर मेरे
अभिभावकों ने मुझमें अपना वारिस देख लिया था जो उनकी ही तरह उनके व्यापार को आगे
बढ़ाएगा और ज़्यादा-से ज़्यादा सुख-सुविधा के सामान तथा चल-अचल संपाति का विस्तार
करेगा।
आज जब मैं
अपनी पिछली योनियों के बारे सोचता हूँ तो लगता है कि मछली, पक्षी, शेर आदि की योनियों
में तो मनुष्यों ने केवल अपना आहार या रोजगार ही देखा है कोई यह जानने का प्रयास
भी नहीं करता कि आखिर उन प्राणियों के मन में है क्या? अन्य योनियों में यह बात तो समझ में आती हैं मगर जब मनुष्य
ही मनुष्य को न समझे इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है?
टर्निंग
प्वाइंट सभी के जीवन में आता है पर मेरे जीवन में कुछ जल्दी ही आ गया था। मेरे
जन्म दिन पर पिताजी ने मुझे उपहार स्वरूप कुछ चीज़ें दी थीं जिसमें एक आकर्षक पैंसिल
बॉक्स भी था। नई पैंसिल बॉक्स लेकर अगले दिन मैं स्कूल गया और उसका प्रदर्शन जब अपने
सहपाठियों के बीच में किया तो मानो ताँता-सा लग गया। कुछ बच्चों की आँखों में वैसी
ही पैंसिल बॉक्स पाने की इच्छा साफ़ झलक रही थी। लाख कोशिश करने के बावजूद भी में
अपने पिताजी को इस बात के लिए राज़ी न कर सका कि इसी तरह के 32 पैंसिल बॉक्स वे मेरे दोस्तों के
लिए ला दें। अंत में मैंने वह पैंसिल बॉक्स अपने पिताजी को वापिस करते हुए कहा अब
मैं यह पैंसिल बॉक्स तभी लूँगा जब आप मेरी शर्त मान लेंगे। पिताजी पर कुछ भी असर
नहीं पड़ा पर अगले दिन मैंने देखा कि वह पैंसिल बॉक्स मेरे बड़े भाई के बस्ते में
अपनी जगह बना चुका था।
उस
घटना के बाद से मैं हमेशा एक कश्मकश में रहने लगा। मैं क्या चाहता हूँ? मुझे क्या करना चाहिए? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? मैं हमेशा इन्हीं सवालों के घेरे में अपने आपको को घिरा
पाता। ऐसे में न ही मुझे कीमती कपड़ें भाते थे न ही बड़े मकान में रहने का सुख ही
मुझे लुभा पाता और न ही टी. वी. पर आने वाले बच्चों के कार्यक्रम ही मुझे मेरी
जिज्ञासा के रास्ते से भटका पाते। जब ऐसे सवालों से कोई बाल-मस्तिष्क गुजरता है और
उसके सवालों का जवाब न मिले तो स्थिति काफी गंभीर हो सकती है। मानसिक संघातों से मानसिक संतुलन खो देने में भी ज्यादा वक्त
नहीं लगता।
अप्रैल का
महीना था। पृथ्वी तपते तवे की भाँति गरम थी। मेरे विद्यालय का नया सत्र शुरू हो
गया था। छुट्टी के बाद हम सब बस की प्रतीक्षा कर रहे थे परंतु बस अपने निर्धारित
समय से विलंब से आने वाली थी। पूछने पर पता चला कि बस का टायर पंक्चर हो गया है और
उसे पहुँचने में थोड़ी देर लगेगी। हमारे वार्डेन टीचर हमलोगों के साथ गेट पर खड़े
थे। खड़े-खड़े वे भी बोर हो गए और हर दिन की तरह आज भी वे अपने मोबाइल पर व्यस्त हो
गए। गेट की दूसरी तरफ पेड़ की छाया में कुछ लोग खड़े थे। उनकी वेश-भूषा साफ़-साफ़ बयाँ
कर रही थी कि वे गरीब हैं। मैं वार्डेन की नज़रों से बचकर उस पेड़ के नीचे जा खड़ा
हुआ और आँखें बंद कर धीमी-धीमी बहती हवा
के स्पर्श को महसूस करने लगा।
शायद
यह चमत्कार ही था कि मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर मिल गया। मैं यह जान गया कि ये
सूरज, हवा, पृथ्वी, जल, वृक्ष नदी, समुद्र, पहाड़ ये सब अपने लिए नहीं हैं, बल्कि दूसरों के लिए हैं। उस पेड़ के नीचे विभिन्न धर्म, जाति, संप्रदाय के
अमीर-गरीब लोग खड़े थे पेड़ बिना भेद-भाव के
सभी को छाया प्रदान कर रहा था। गहराई से
विचार करने पर पता चला कि प्रकृति की सभी कृतियाँ सभी के लिए समान हैं। ये निरंतर
अपने प्राकृतिक धर्म का पालन करते हुए सभी जीवधारियों से एक-सा व्यवहार कर रही है।
परंतु मनुष्य ही प्रकृति की एकमात्र ऐसी कृति है जिसके पास उन्नत मस्तिष्क होते
हुए भी केवल अपने तक ही सीमित है। उसकी दुनिया उसके परिवार से बड़ी नहीं है। मेरे
पिताजी का केवल मुझे ही पैंसिल बॉक्स लाकर देना इसका प्रमाण है। मनुष्य केवल अपने
और अपने परिवार के बारे में ही सोचता रहता है और इसी चिंता में एक दिन चिता में बदल
जाता है।
मुझे
समझ में आ गया कि मैं चाहता क्या हूँ? पिछली योनियों में भी मैं मनुष्य जीवन में जन्म लेने के
लिए क्यों व्याकुल हुआ करता था क्योंकि मैं चाह कर भी अपने पिछले जन्म की योनियों
की रक्षा नहीं कर सकता था। परंतु मनुष्य जीवन पाकर यह संभव हो गया है। मनुष्य जीवन ही एक अवसर है मानव को फिर से इस
दुनिया में सर्वश्रेष्ठ प्राणी घोषित करने का।
हाँ, यह भी सच है कि आज का ज़माना बदल चुका है और इस बदले जमाने
को बदलने के लिए तरीकों में भी बदलाव लाने की ज़रूरत है। इसके लिए मुझे अच्छे से
पढ़ाई करनी होगी। सुसंस्कारों और संस्कृति का स्वयं में समावेश करना होगा। आरामदायक
जीवन शैली से विमुख होना पड़ेगा। लोगों के सोच-विचारों का आकलन कर उन्हें जागरूक
बनाना होगा ताकि इतिहास के पन्नों में एक ऐसी फौज का ज़िक्र हो जिसने मानवता को फिर
से कायम करने की मुहिम छेड़ी थी।
अविनाश रंजन गुप्ता
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