Meri Shraddhanjali Par By Avinash Ranjan Gupta
मेरी श्रद्धांजलि पर .....
कल ही मैं
अपनी कंपनी के लिए एक बड़े कोंट्रेक्ट की सक्सेसफुल डील कर कर घर लौटा हूँ। मेरे इस
बिजनेस सक्सेस से कंपनी के सी.ई.ओ. मुझसे काफी इंप्रेस हुए। मैंने इस कोंट्रेक्ट
को अपनी कंपनी के लिए हासिल करने में 6-9 की चाल चली है जो आज के ज़माने में
स्मार्ट होने का प्रमाण है। ऐसी स्मार्टनेस आज की आबादी के 90 प्रतिशत लोगों
द्वारा स्वीकार कर ली जाती है पर बचे 10 प्रतिशत लोग अभी भी इस प्रकार की
स्मार्टनेस को धोखाधड़ी का नाम देते हैं। पर
आज के युग में सफलता का यही रहस्य है। खैर, मुझे उससे क्या लेना-देना, बस मुझे तो इन्सेंटिव चाहिए
और सुखमय जीवन के लिए आने वाले दो महीनों के अंदर अपने घर के बाहर एक कार खड़ी हो।
मैं यही सब सोच ही रहा था कि तभी मेरे एक बेस्ट फ्रेंड का कॉल आया। उससे बातें
करने के दौरान सही सिग्नल के लिए मैं घर के दरवाजे की तरफ चला गया। वहाँ अचानक
मुझे एक श्राद्ध का निमंत्रण पत्र दिखा जिसमें मेरे पड़ोसी शर्मा जी के पिता की
मृत्यु का दुखद समाचार था और ठीक चौदहवे दिन श्राद्ध भोजन करने का करबद्ध निमंत्रण।
मेरी अनुपस्थिति में शर्मा जी ने श्राद्ध निमंत्रण पत्र को खिड़की से घर के अंदर
डाल दिया था। चूँकि मेरा उनके साथ पड़ोसी के रूप में एक अच्छा रिश्ता था, दूसरा मैं उसी दिन पहुँचा था और लंबी यात्रा से लौटने के कारण थकान से पूरा
चूर और खाना बनाने का मन भी नहीं कर रहा था, तीसरा इस
निमंत्रण में जाने के लिए मुझे किसी प्रकार का कोई गिफ्ट भी नहीं लेना था। इन सब
पर विचार करते हुए मैंने श्राद्ध में जाने का पूरा मन बना लिया।
शाम के वक्त जब
मैं उनके निवास-स्थान पर पहुँचा तो एक हॉल में उनके सगे-संबंधी और जान-पहचान वाले
लोग मौज़ूद थे और शर्माजी के स्वर्गीय पिताजी के फोटो पर पुष्पमाला और धूप-दीया
विधिवत प्रज्जवलित हो रही थी। सभी मौजूद लोग बारी-बारी से उनके फोटो के समीप जाकर
उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे थे और उनमें से कुछ शर्मा जी के स्वर्गीय पिताजी के
बारे में कुछ बोल रहे थे। बोलने वाले लोग जब पुनः अपने स्थान पर वापस आकर बैठते थे
तो बगल के व्यक्ति से उनकी कानाफूसी शुरू हो जाया करती थी। किसी ने कहा, “बहुत फेंकते हो यार” , किसी
ने कहा, “तुम तो झूठी तारीफ करने में उस्ताद हो।” , किसी ने तो यह कहकर हद ही पार कर
दी कि तुमने तो एक दरिंदे को दयावान बना दिया। मुझे तो ऐसा लग रहा था कि ये आदमी
के वेश में भेड़िए हैं। अगर आदमी होते तो क्या इन्हें लज्जा नहीं आती। कोई मर गया
है और इनकी कुटिलता कम होने का नाम ही नहीं ले रही है।
जैसे-तैसे वो दिन
तो पार हो गया पर उसका असर अभी में मुझपर था। 26 साल की उम्र में मुझे 62 तक की
लाइफ को फाइनेंसियली सिक्योर करना था। सुख-सुविधा के बहुत सारे सामान जुटाने थे और
सबसे बड़ी बात मुझे दूसरों से आगे निकलना था। परंतु इस घटना के बाद इस दौड़ में
थोड़ी-सी शिथिलता आ गई थी।
एक दिन जब मैं
लोकलट्रेन से अपने ऑफिस से घर लौट रहा था तो मेरी अगली सीट पर मुझे एक सीधा-सादा
आदमी दिखाई दिया जो पूरी तल्लीनता से एक किताब पढ़ रहा था जिसका नाम था ‘महान व्यक्तियों की जीवन गाथा’ उसके पैरों की पास एक थैला पड़ा था जिसमें बहुत सारी कलमें थीं। बीच में
उसने थोड़ा-सा विराम लेते हुए पानी की बोतल से पानी पीने लगा। आँखों के इशारों से
ही मैंने उस पुस्तक को उठाने की पर्मिशन माँगी और सहमति मिलते ही मैंने उस पुस्तक
के पन्ने पलटने शुरू कर दिए। मेरी आँखों ने जिस वाक्य को सबसे पहले नोटिस किया वह
था, “अपने पूरे कार्यकाल में इन्होंने
अपनी तनख्वाह का 50% ही लिया।” ये वाक्य भारत के प्रथम
राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से जुड़ा था। दूसरा वाक्य जो मैंने पढ़ा वह यह था, “भारत के प्रधानमंत्री होते हुए भी इन्होंने अपने पुराने एवं फटे कपड़ों
का अधिकतम प्रयोग किया।” ये वाक्य भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से जुड़ा था। तीसरा वाक्य जो मैंने पढ़ा वह था, “इनका कार्यकाल समाप्त होते ही केवल दो सूटकेस लेकर राष्ट्रपति भवन से
बाहर निकल गए।” ये वाक्य ए.पी.जे. कलाम के लिए था। मैं आगे के पन्ने पलटने ही वाला
था कि टी.टी. ने अपने प्रतिदिन का जुमला कहना शुरू कर दिया ‘टिकट
प्लीज़’। टी.टी. को एम.एस.टी. दिखाने की बाद मेरी उस व्यक्ति
से कुछ बातें हुईं और मुझे यह जानकार बहुत हैरानी हुई कि उस आदमी की आयु 42 साल है
परंतु दिखने में वो हमारी ही उम्र का लगता है। जब मैंने उनके काम के बारे में पूछा
तो उन्होंने बताया कि वो एक शिक्षक हैं और मेरी नज़र जैसे ही उनके पैरों के पास
पड़ी थैली पर गई तो झट से उन्होंने कहा, “आज शिक्षक-दिवस है और मुझे मेरे छात्रों ने भेंट स्वरूप ये कलमें दी
हैं।” अगले स्टेशन पर ट्रेन रुकी और ये महाशय एक हल्की-सी मीठी मुस्कान देते हुए
मुझसे विदा लिए।
अगले दिन जब मैं
ऑफिस पहुँचा तो 210000/- रुपए का इन्सेंटिव मेरा इंतज़ार कर रहा था। मेरा प्रोमोशन
भी हो गया था। यह जानकार मुझे खुशी तो हो रही थी पर उतनी नहीं जितनी की मैंने और मेरे
सहकर्मियों ने आशा की थी। मैंने यह खुशखबरी अपनी प्रेमिका को भी दी और शाम को
ट्रीट के लिए रेस्ट्योरेंट में मिलने की बात भी तय हो गई। कुछ दिनों के बाद मैंने
न्यूज़ में सुना कि महामहिम ए.पी.जे. कलाम शिमला में छात्राओं को संबोधित करते समय अचानक
गिर पड़े और अस्पताल में उनकी मौत हो गई। उनकी मौत का सारा देश मातम मना रहा था, मैं भी। मरे कॉलेज के दिनों में एक कोन्वोकेशन सभा
में वे मुख्य अतिथि के रूप में आए थे। उनकी पर्सनेलटी और जीवन शैली से मैं काफी
प्रभावित हुआ था परंतु उनके सिद्धांतों को मैं अपने जीवन में न उतार सका।
कुछ दिनों तक में
थोड़ा सैड रहा यहाँ तक कि जब मैंने अपनी सैडनेस को कम करने के लिए अपनी गर्लफ्रेंड
को कॉल किया तो वह भी अपने काम में इतनी व्यस्त निकली कि मेरे लिए समय भी नहीं
निकाल पाई। ऐसे ही चल रहा था कि मैंने एक दिन फिर से एक दुखद समाचार सुना कि मुंबई
के धारावी इलाके में आग लग जाने की वजह से भारी मात्रा में जन-माल की हानि हुई है।
टी.वी. पर जब यह न्यूज़ आया तो पीड़ितों के चेहरों को देखकर ऐसा लग रहा था कि वो
हमसे मदद की उम्मीद लगाए हुए हैं। बस एक ही झटके में मैंने इन्सेंटिव में पाए
210000/- रुपए का डोनेशन में दे दिया। कुछ दिनों बाद राज्य सरकार की तरफ से मेरे
पते पर एक लिफ़ाफ़ा आया जिसमें मेरे डोनेशन और मेरे व्यक्तित्व की भूरि-भूरि प्रशंसा
की गई थी। दुर्भाग्य से यह लिफ़ाफ़ा मेरी गर्लफ्रेंड ने देख लिया। फिर क्या था उसने
जो मुझे डाँट लगाई कि पूछिए मत। पर बावजूद इस यातना के मुझे भीतर ही भीतर खुशी का
अनुभव हो रहा था।
एक दिन अखबार में
मैंने विज्ञापन देखा कि डी.ए.वी. पब्लिक स्कूल में शिक्षको की आवश्यकता है। पहले
तो मैंने इस विज्ञापन को ऐसे ही नजरंदाज़ कर दिया पर ट्रेन में उस आदमी से मुलाक़ात
ने फिर से मुझे उस विज्ञापन को देखने पर मज़बूर कर दिया और संयोग की बात यह थी कि
इंटरव्यू रविवार के दिन निर्धारित था। मैंने तय कर लिया कि जो भी हो मैं इस
इंटरव्यू में जाऊँगा। निर्धारित तिथि को मैं इंटरव्यू वेन्यू में पहुँच गया। टेस्ट के लिए
उन्होंने एक लिखित परीक्षा रखी थी जिसमें पहला सवाल एक पाराग्राफ राइटिंग था
जिसमें 150 शब्दों में ये लिखना था कि आपको यह पोस्ट क्यों मिलनी चाहिए? बस फिर क्या था मैंने अपनी राइटिंग में इस बात को
उठाया कि मैं हमेशा आपकी संस्था को कुछ एक्स्ट्रा देने के लिए तैयार रहूँगा। आज के
बाज़ार की नीति है कि ग्राहकों को कुछ एक्स्ट्रा दो तभी जाकर वो तुम्हारे प्रोडक्ट
की तारीफ आकर्षित होंगे। मैंने भी यही नीति का अनुपालन किया और चमत्कार की बात यह
कि मैं सेकेड लेवल के लिए क्वालिफाइ हो गया। इंटरेक्शन सेसन में भी मैंने उम्दा
प्रदर्शन किया और थर्ड राउंड के लिए चुन लिया गया। बी.एड. की डिग्री न होने की वजह
से मुझे कम वेतन पर रखे जाने की बात कही गई जिसे मैंने स्वीकार कर लिया। और एक
अच्छी ख़ासी नौकरी से इस्तीफा देकर कम वेतन वाली नौकरी करने का निश्चय कर लिया। इस
बात की जानकारी जब मेरी प्रेमिका को हुई तो उसने मुझे पागल करार देते हुए उसने मुझे
अपना इस्तीफा दे दिया।
अपने टीचिंग करियर की शुरुआत करने से पहले मैंने कुछ गोल सेट किए।
वह गोल था कि मेरे मौत के बाद मेरी श्रद्धांजलि पर लोगों का मेरे प्रति क्या वाक्य
होगा?
परिवारवालों का – मेरा बेटा, मेरा भाई, मेरे चाचा बहुत ही अच्छे इंसान थे। इन्होंने अपने पूरे जीवन में यही सीखा
था कि कैसे मरने की बाद भी अमर रहा जाए और आज मुझे लगता है कि इनका सपना सच हो
गया।
दूधवाला, राशनवाला, कपड़ेवाला – साहब बहुत ही महान आदमी थे। हमें हमेशा सम्मान की नज़र से देखते
थे। महीने की पहली तारीख को हमारे बिल का
सारा पैसा दे दिया करते थे यहाँ तक कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में इन्होंने हमें
4 महीने के पैसे पहले ही दे रखे थे। बड़े महान आदमी थे हमारे मास्टर साहब।
पड़ोसी – श्री अविनाश रंजन गुप्ता जी को पड़ोसी के रूप में पाने का मतलब था
कि अलादीन के चिराग का मिल जाना, मुझे याद
है जब आधी रात को मेरी पत्नी की तबीयत खराब हो गई थी तो इन्होंने अपनी गाड़ी में
हमें बड़े अस्पताल पहुँचाया था जो यहाँ से लगभग 87 किलोमीटर दूर है। वो भी उस हालात
में जब ज़ोरों की बारिश हो रही थी। अगर आज मेरी पत्नी मेरे साथ है तो ये सिर्फ इनकी
ही मेहरबानी का नतीजा है।
मित्र – मैं अवि को पिछले 27 सालों से जानता हूँ, मेरे जीवन में अनेक दोस्त बने और बिछड़ गए लेकिन ये
मेरा एकमात्र ऐसा दोस्त था जिससे मेरी दोस्ती हर दिन और भी मजबूत होती गई। हम
दोनों एक ही कंपनी में थे जब ये जॉब से रिज़ाइन कर रहा था तो मैंने इसे बहुत समझाया
था परंतु इसने मेरी बात यह कहकर टाल दी कि जीवन में कुछ तो अपने मन का करने दो
यार। मुझे उस समय तो लगा कि ये अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कर रहा है पर आज मुझे यकीन
हो गया है कि इसने ही अपने जीवन को सही तरीके से जीया है। मैं तो जीवन में सफलता को
पैसों से आँका करता था पर असली सफलता तो मेरे दोस्त ने पाई है। मैंने मेरे अपने
चाचा की मय्यत पर केवल दो घंटे की छुट्टी ली थी पर अपने मित्र की अंतिम यात्रा में
भाग लेने के लिए 2400 किलोमीटर का सफर तय करके आया हूँ। आज मुझे गर्व है कि ये
मेरा दोस्त था।
प्रिंसिपल - श्री अविनाश रंजन गुप्ता
मेरे लिए परम आदरणीय हैं। जन इन्होंने मुझसे कहा था कि मैं आपके स्कूल को कुछ
एक्स्ट्रा दूँगा तभी मुझे इनके व्यक्तित्व की प्रतिभा का एहसास हो गया था।
इन्होंने सचमुच यह प्रमाणित कर दिया कि ये अपने वादे के कितने पक्के हैं। ये इन्हीं
की प्रयासों का नतीजा है कि हमारा स्कूल हिन्दी
की परीक्षाओं में पूरे राज्य में 13 बार प्रथम स्थान पर रहा। राज्य सरकार
द्वारा आयोजित किसी भी हिन्दी प्रतियोगिता में हमारे छात्र विजयी होते ही है। अपने
जीवन में मैं अगर किसी साक्षात आदमी से प्रभावित हुआ हूँ तो वे ये ही हैं। इनकी निष्ठापूर्ण
सेवाओं को हमारा स्कूल कभी नहीं भूल सकेगा इसीलिए हमारे विद्यालय के नए पुस्तकालय
का नाम इनके नाम पर रखा गया है।
सहकर्मी – अपने अभी तक
के जीवन में हमने किसी भी शिक्षक को अपने काम में इतना तल्लीन रहते हुए नहीं देखा।
जब कभी भी शिक्षकों की सभा होती तो इनके द्वारा बताए गए सुझाव और तर्क सर्वसम्मति
से स्वीकार कर लिए जाते थे। इन्होंने अपने पूरे करियर में कभी भी अपने पूरे CL की छुट्टी नहीं ली। यहाँ तक कि किसी शिक्षक की
अनुपस्थिति में ये सहर्ष उनकी कक्षाएँ लेने को तैयार हो जाते थे। इनका रिकॉर्ड है
कि इन्हें ही शिक्षक दिवस में सबसे ज़्यादा कलमें भेंट स्वरूप मिला करती थीं।
छात्र – आज मुझे ऐसा
लग रहा है कि मैंने अपने धर्मपिता को खो दिया है। मुझे सदा से स्टेज फियर था परंतु
एक दिन सर ने मुझसे कहा कि तुम कर सकते हो मैंने तुम्हारे अंदर वो ताकत देखी है।
उन्होंने मुझे बहुत पूस किया है। एक दिन तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुम स्टेज पर
जाकर अपना स्पीच बोलो और अगर तुम्हें डर लगे तो मेरी तरफ देखना मैं वहाँ खड़ा
रहूँगा और उस दिन से मेरा स्टेज फियर खत्म हो गया मगर आज मैं उन्हें अपने हौसला-आफ़जायी
के लिए खड़ा न पाकर अपने आप को अनाथ मान रहा हूँ। ये इनके प्रेरणा का ही परिणाम है
कि मेरे जैसा साधारण विद्यार्थी आज आईआईटी के एंटरेंस एग्जाम को आसानी से पास कर
गया। इन्होंने हम सभी छात्रों में वह ताकत देखी थी जिससे हम सभी कितने सालों से
अंजान थे।
इसी को मैंने अपने
का लक्ष्य बनाकर अपने टीचिंग करियर की शुरुआत की। जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव भी आए।
कभी-कभी दूसरों की बातों को सुनकर ऐसा लगता था कि कहीं मैंने कोई गलती तो नहीं कर
दी पर आत्ममंथन के बाद सदा यही सोचकर खुश हुआ करता था कि मेरे पास इतने पैसे तो हो
ही जाते हैं कि मेरी रोज़ी-रोटी आराम से चल जाती है और बड़ी बात यह है कि मैंने सादा
जीवन बिताने की जो दृढ़ इच्छा बनाई है उसमें मैं कामयाब हो रहा हूँ। सच बोलूँ तो आज
के ज़माने में सबसे कठिन काम है- सरल बनना। जब ये सारी बातें मेरा मस्तिष्क मुझसे
कहता था तो मुझे यह मानने भी ज़रा भी देर नहीं लगती कि मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र
उसका मस्तिष्क ही होता है। इसी तरह से
सफलतापूर्ण जीवन बिताते हुए 27 नवंबर 2076 को मरी जीवन लीला का अंत हो गया।
जैसा कि श्री
अविनाश रंजन गुप्ता जी ने अपनी श्रद्धांजलि में दूसरे के मुख से निकलने वाले
वाक्यों को पहले ही लिपिबद्ध कर दिया था और उसी दिशा में आजीवन कार्य भी करते रहे
फिर भी इनके बैकुंठ जाने के बाद इनके लेख को छापने से पहले इसमें कुछ अंश जोड़े
जाने की अहमियत महसूस की गई क्योंकि इन्होंने दो व्यक्तियों के वाक्यों को नहीं
लिखा था जो इनके स्वर्गारोहण के बाद इनकी प्रशंसा मे कहे गए है, वे अंश इस प्रकार हैं-
ब्यूटी – आज मुझे
लोगों की बातों पर यकीन होने लगा है कि स्त्रियों में समझदारी का अभाव रहता है और
इसी कमी की वजह से आज से 40 साल पहले मैंने इनका साथ सिर्फ इसलिए छोड़ दिया था
क्योंकि इन्होंने मोटी तनख्वाह वाली नौकरी छोड़कर टीचर बनने का फैसला किया था। मैं इन्हें वो बनाना चाहती थी जो आज लगभग हर
लड़की अपने होने वाले पति में देखना चाहती है। पर मैं गलत थी। मुझे इस बात की खुशी
है कि कभी मेरा इनसे संबंध रहा है और दुख इस बात का है कि उस संबंध की अहमियत मुझे
उस समय मालूम हुई जब तक बहुत देर हो चुकी थी।
राहुल – मेरा नाम
राहूल है। आप में से मुझे कोई नहीं जनता यहाँ तक कि श्री अविनाश रंजन गुप्ता जी भी
नहीं। आज मैं आप सबको देख पा रहा हूँ तो सिर्फ इनकी वजह से ये कलियुग के महान दाता
हैं जिन्होंने अपनी आँखें दान कर दी थीं और मुझ अंधे को रोशनी मिल गई। आज मुझे इस
बात का गम नहीं कि भगवान ने मुझे इतने
दिनों तक क्यों अंधा रखा बल्कि मैं भगवान का शुक्रिया अदा करता हूँ कि उसने मुझे
इतने दिनों तक इसलिए अंधा रखा ताकि मुझे इन महात्मा की आँखें मिल सकें। रोशनी
मिलते ही मुझे सब दिखाई देने लगा पर वो नहीं दिखा जिसकी वजह से मैं देख पा रहा
हूँ। आज मुझे अफसोस इस बात का हो रहा है कि काश इनका हृदय भी मुझे मिला होता तो
मैं इनके पद-चिह्नों पर चलकर इनके अधूरे काम को पूरा कर पाता। आज मैंने भी यह
निश्चय किया है कि अपने जीवन में ऐसे काम करूँगा कि जब मेरी मृत्यु हो तो इसी तरह
का जन सैलाब मुझे अश्रुपूर्ण और भावपूर्ण विदाई देने के लिए उमड़ पड़े।
अविनाश रंजन गुप्ता
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