Kya aap mujhe sunana chahenge By Avinash Ranjan Gupta



क्या आप मुझे सुनना चाहेंगे?
            धन्यवाद! आपने मेरा लेख पढ़ने का निर्णय लिया। जिस प्रकार सूर्य की किरणें सभी ग्रहों तक नहीं पहुँच पाती परंतु जहाँ भी ठीक तरीके से पहुँचती हैं वहाँ जीवन संभव हो सकने की संभावना होती है। ठीक उसी प्रकार मेरा यह लेख सभी लोगों तक नहीं पहुँच पाएगा पर जितने लोगों तक भी पहुँचेगा अगर उन लोगों ने इस लेख का आद्योपांत अध्ययन पूरी सूक्ष्मता और सघनता से किया तो उनके जीवन को निश्चित रूप से एक नई दिशा मिलेगी। वे भी अपने जीवन को उचित आयाम देने में सफल होंगे और लेख के अंत में मुझे धनवाद दिए बिना नहीं रहेंगे। इसी विश्वास के साथ मैं आपको अपने लेख के मुख्य भाग की ओर लिए चलता हूँ।

            एक बार की बात हैं, मैं कहीं से गुज़र रहा था, तो देखा कि कुछ दूरी पर लोगों की भीड़ जमा हो रही है। देखने से ऐसा लग रहा था कि जन-सैलाब उमड़ रहा हो। भीड़ को देखकर आपकी तरह मेरे मन में भी कौतूहल जागा कि आखिर माज़रा क्या है, जाकर देखना चाहिए। साधारणत:, साधारण व्यक्ति भीड़ का हिस्सा ही बनना पसंद करते हैं। जहाँ भीड़ देखी कि उसका संवर्धन करने के लिए अपनी उपस्थिति भी दर्ज़ करा देते हैं। नज़दीक जाने पर पता चला कि वहाँ किसी फ़िल्म की शूटिंग होने वाली है और थोड़ी देर के बाद फ़िल्म का हीरो (नायक) वहाँ पहुँचकर अभिनय करने वाला है। भीड़ में खड़े होकर अपने लिए कुछ करवाने की गुहार लगाने से कहीं बेहतर है कि खुद को इतना विशिष्ट बनाया जाए कि अपनी उपस्थिति मात्र से ही भीड़ इक्कट्ठी हो और उनके लिए कुछ किया जाए। इसी विचार से आंदोलित होकर मैं भीड़ से निकल ही रहा था कि तभी किसी ने आवाज़ लगाई, “हीरो आ गया! हीरो आ गया!” मेरे बढ़ते कदम इस वाक्य को सुनकर रुक गए। मैं पीछे मुड़ा और थोड़ी जद्दोजहद करने के बाद मैंने हीरो को देखा। (किन्हीं कारणों से हीरो का नाम गुप्त रखा गया है।)  मुझे भीड़ में ऐसे कई चेहरे दिखाई दिए जो उस हीरो के रूप-रंग और  शारीरिक ढाँचे से कहीं बेहतर थे मगर मुझे एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो उस हीरो के मानसिक स्तर से श्रेष्ठ हो। सच तो यही है कि सौ गधे मिलकर भी एक घोड़े की बराबरी नहीं कर सकते।

            अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप भीड़ का हिस्सा बनना चाहते हैं या विशिष्ट बनकर भीड़ का कारण।    

            कुछ ही दिन पहले की बात है, मैं किसी रेस्ट्योरेंट में जल-पान कर रहा था और मेरी टेबल के पीछे वाली टेबल पर कुछ युवा किसी प्रेम-प्रसंग पर गहरी आलोचना कर रहे थे। उस आलोचना का एक वाक्य यह भी था, “अरे यार! वो बहुत ही घमंडी लड़की है। पता नहीं अपने आपको क्या समझती है? उसने जो सुधीर के साथ किया ......” उनकी बातों ने मुझे आज के अधिकांश युवा वर्गों के बारे में अपनी राय रखने पर मज़बूर कर दिया कि आज के युवा वर्ग तकनीक के मामले में और चीजों को विकसित या विकृत रूप में प्रस्तुत करने में भले ही माहिर हों मगर उनमें सकारात्मक सोच, समझदारी और सहनशीलता का नितांत अभाव देखा जाता है। बिना किसी हिचक के मैं उनके टेबल के पास गया और कहा, “मे आइ ज्वाइन यू” आश्चर्य भरी दृष्टि से वे मेरी तरफ़ देखने लगें और सहमति देते हुए हाथ से खाली चेयर की तरफ इशारा किया। एक याराना और प्रभावपूर्ण तरीके से मैंने उनके सामने ऐसे अनेक प्रसिद्ध व्यवस्था विवाह (Arrange Marriage) और प्रेम-विवाह (Love Marriage) के बंधन में बंधे दंपतियों का उदाहरण पेश किया जिसमें किसी न किसी रूप में पुरुष स्त्री से श्रेष्ठ थे। निष्कर्ष यही निकलता है कि कोई भी लड़की उसी लड़के को पसंद करती है या उसी के बाहु-पाश में बंधना चाहती है जो विशिष्ट होता है। शकुंतला ने भी दुष्यंत के साथ गंधर्व विवाह किया था। सीता ने भी राम का वरण किया था, रुक्मिणी ने भी शिशुपाल का त्याग कर कृष्ण को अपना पति स्वीकार किया था। द्रौपदी ने भी कर्ण के बदले अर्जुन को अपना स्वामी चुना था और आज के युग में भी कोई भी लड़की उसे ही अपने पति के रूप में चुनना चाहेगी जो गुण, कर्म  और आचार-विचार में  उससे श्रेष्ठ हो। मेरी बातों का उनपर असर पड़ चुका था ये उनकी चेहरों पर छाई स्तब्धता साफ़ बयान कर रही थी।

            यदि आप भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं तो अपने अंदर अच्छे गुणों का संचार कर विशिष्ट बनिए।

            एक बार की बात है, मैं काम पर जा रहा था तो पान की दुकान पर मैंने एक गीत सुना जिसके बोल कुछ इस प्रकार थे, “पूरब का पश्चिम में उजाला हो गया..... लंदन में इंडिया का बोलबाला हो गया।” ये गीत सुनते ही मुझे स्कूल के दिनों के उन इतिहास की कक्षाओं का स्मरण हो आया जब हमारे शिक्षक ये बताया करते थे कि भारत को सोने कि चिड़िया कहा जाता था। विश्व का सबसे पहला विश्वविद्यालय भारत में ही था। पूरी दुनिया को शून्य और दशमलव की देन भारत की है। इस पावन भूमि  ने आर्यभट्ट, बारहमिहिर, पाणिनी, वाग्भट्ट, भारद्वाज, पतंजलि, गौतम बुद्ध और स्वामी विवेकानंद जैसे अमर सपूतों को जन्म दिया है जिन्होंने विश्व में भारत की गरिमा- महिमा को शिखर पर पहुँचाने का काम किया है। और आज जब लंदन में इंडिया का बोलबाला होता है तो इसे बहुत बड़ी उपलब्धि मान ली जाती है जबकि सच तो यह है कि उस समय भारत विशिष्ट हुआ करता था और आज लंदन, अमेरिका और फ्रांस विशिष्ट बना हुआ है। इस बदले हुए समीकरण का कारण आपको अच्छे से पता है। आज भारत के लंदन, अमेरिका और फ्रांस के दूतावासों में लाखों अर्ज़ियाँ डाली जाती हैं ताकि उन्हें विज़ा मिल सके और वे भी विशिष्ट देशों में जा सकें।

            सच तो यह है कि विशिष्ट बनना मुश्किल होता है और उससे भी ज़्यादा मुश्किल होता है विशिष्ट बने रहना। अगर आप भी विशिष्ट बनना चाहते हैं तो ये भी याद रखिए कि आपको विशिष्ट बने भी रहना होगा, नहीं तो स्थिति भारत जैसी हो जाएगी।

            मेरा चचेरा भाई केमिकल इंजीनियरिंग के फ़ाइनल सेमिस्टर था, उन्हीं दिनों उनके कॉलेज में बड़ी-बड़ी कंपनियों की सेलेक्शन टीम आई हुई थी। शाम के समय जब मेरा चचेरा भाई घर आया तो उसका उतरा हुआ चेहरा यह ज़ाहिर कर रहा था कि उसका सेलेक्शन नहीं हुआ। घरवालों को भी आश्चर्य हो रहा था कि मेधावी छात्र होते हुए भी उसका सेलेक्शन न होकर उससे कम मेधावी छात्रों का सेलेक्शन हो गया। मुझे लगा कि उसका मनोबल बढ़ाने के लिए उससे कुछ कहूँ परंतु समय, काल और स्थान मुझे अनुमति नहीं दे रहा था। पर आज मैं बोल सकता हूँ कि भले ही आप मेधावी हो और आपमें बहुत सारे गुण हों परंतु अगर आपको उन गुणों को सही तरीके से चेनेलाइज़ करना नहीं आता तो आप गौण ही रह जाएँगे।

            यदि आपको भी लगता है कि आपमें कोई विशिष्ट गुण है तो उसके प्रचार के लिए सदा तैयार रहिए। लोगों को आपके गुणों के बारे में पता चलना ही चाहिए। जंगल में मोर नाचा किसने देखा? यही उक्ति उन मेधावी लोगों के लिए भी उपयुक्त है जो गुणों के होते हुए भी गौण बने रहते हैं।

            बहुत सालों के बाद जब मैं अपने गाँव गया तो मैंने काफी सकारात्मक बदलावों को अंकित किया जैसे- पक्की सड़कें, बिजली व्यवस्था, सुनियोजित दूषित जल निष्कासन व्यवस्था आदि-आदि। परंतु मुर्गेपाड़े (जहाँ मुर्गे लड़ाए जाते हैं) का इलाका जस का तस था। और आज भी वहाँ मुर्गे लड़ाए जाते हैं और हारा हुआ  मुर्गा फिर कभी भी अपने प्रतिद्वंद्वी के सामने सिर नहीं उठाता। आज के युवा वर्गों में कुछ ऐसी ही स्थिति देखने को मिलती है। एक बार की मिली असफलता को वो स्थायी असफलता मान बैठते हैं। ऐसे युवा वर्गों को उस चींटी का स्मरण करना चाहिए जो दाना लेकर दीवार पर चढ़ते समय अनेक बार गिरने पर भी हार नहीं मानती।

            यदि आपको भी किसी काम में असफलता हाथ लगी है तो मुर्गे की तरह सदा के लिए हार न माने बल्कि ठीक उस चींटी  तरह आप भी उस समय तक कोशिश जारी रखें जब तक आपको सफलता मिल नहीं जाती। और इस बात को कभी न भूलें  कि सफल होने के लिए विशिष्ट होना पड़ता है।

            अभी तक की कही गई बातों से आप प्रभावित हो गए होंगे और हो सकता है आपके दिमाग में ये सवाल उठ रहा होगा कि क्या विशिष्ट लोगों के बीच विशिष्टता को लेकर कभी भी प्रतिस्पर्धा होती है? इसका जवाब है, नहीं। आज तक जिन्होंने भी अपने अंदर विशिष्ट गुणों का संचार किसी विशेष उद्देश्य के लिए किया है जिससे पूरी मानव जाति को लाभ हो, उनमें किसी भी प्रकार की प्रतियोगिता नहीं हुई है। गंगा नदी भारत की सबसे प्राचीन और पवित्र नदी मानी जाती है इस वजह से ये विशिष्ट है परंतु इससे न ही अन्य नदियों के साथ किसी प्रकार कि प्रतिस्पर्धा होती है न ही मान कम होता है। सारी नदियाँ अपने-अपने इलाके के लिए विशिष्ट होती हैं।

           आप भी किसी से प्रतिस्पर्धा हेतु विशिष्ट न बनकर खुद को समाज की परिसंपत्ति (Asset) बनाने के उद्देश्य से विशिष्ट बनें तो आपकी विशिष्टता सार्थक सिद्ध होगी।



विशिष्ट लोगों के साथ लोग अपने दूर की पहचान को भी नज़दीक का बताते हैं

और गौण लोगों के साथ खून के रिश्ते को भी अनजाना कर जाते हैं

अब यह आप पर है कि आप अपनों को बेगाना

या फिर अनजानों को भी अपना बनाते हैं?



            मुझे धन्यवाद देने की या आभार प्रदर्शन करने की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं भी विशिष्ट बनने की राह में हूँ और यही कोशिश करता हूँ कि अपनी लेखनी के माध्यम से अन्य लोगों को भी इस राह पर ला सकूँ।

अविनाश रंजन गुप्ता  


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