Faliure Ka Postmortom Avinash Ranjan Gupta
फेलियर
का पोस्टमॉर्टम
टीचर – गुड मॉर्निंग स्टूडेंट्स
(कक्षा में प्रवेश करते हैं)
स्टूडेंट्स - गुड मॉर्निंग सर,
कुछ बच्चे पहले कुछ बाद
में और पीछे बेंच में बैठने वाले बच्चे खड़े ही नहीं हुए क्योंकि
वे तो आगे खड़े हुए बच्चों से छिप गए थे।
टीचर – कल मैंने जो आपलोगों
को ‘सफलता’ पर निबंध लिखकर लाने का होमवर्क
दिया था रोल नंबर वाइज़ यहाँ आकर पढ़िए।
टीचर ने रोल नंबर 1 को पुकारा
रोल नंबर 1 टीचर के पास आया
और होमवर्क में दिया गया निबंध ‘सफलता’ का कक्षा के छात्रों की तरफ मुँह कर वाचन करने लगा।
सभी बच्चों में से चार-पाँच के अलावा बाकी बच्चों को देखकर ऐसा लग रहा था कि उनका शरीर तो क्लास में
हैं पर मन नहीं।
रोल नंबर 1 ने अपना वाचन पूरा
किया ध्यानशील छात्रों ने तालियाँ बजाईं। तालियों की आवाज़ सुनकर वे छात्र भी ताली बजाने
लगे जिनका शरीर और मन का अलगाव हो गया था। दो-चार बच्चों ने तो
सुबह के नाश्ते के सारी ताकत तालियों में ही निकाल देने का फैसला कर लिया था। वे ज़ोर-ज़ोर से उस समय तक तालियाँ बजाते रहे जब तक टीचर की कोप दृष्टि उन महानुभावों
पर न पड़ी।
अब रोल नंबर दो की बारी थी। वह भी टीचर के पास आया उसे देखते ही क्लास
के सारे बच्चे हँस पड़े। कारण यह था कि उसकी टाई आगे की जगह पीछे चली गई थी जो किसी
कमजोर चोटी की तरह लग रही थी।
टीचर ने सबको शांत करते हुए उसकी टाई ठीक की और पढ़ने को कहा।
अपना निबंध पढ़ते समय वह कहीं-कहीं रुक रहा था। उसका वाचन कौशल उतना उन्नत नहीं था फिर भी टीचर ने उसकी हिम्मत
बढ़ाते हुए कहा पढ़ो-पढ़ो आप अच्छा पढ़ रहे हो। जैसे-तैसे उस बच्चे ने अपना निबंध पूरा किया।
तालियाँ बजने का सिलसिला फिर शुरू हुआ पर कुछ अलग अंदाज़ में। तभी एक
छात्र ने टॉइलेट जाने
की आज्ञा माँगी। दूसरे छात्र ने तुरंत कहा, “सर रोल नंबर चार
इसी का है। इसने अपना होमवर्क पूरा नहीं किया है और आपसे बचने के लिए यह टॉइलेट जाना
चाहता है जबकि इससे पहले पीरियड में यह टॉइलेट गया था।” टीचर
ने अभिनव से पूछा क्या सुब्रत जो बोल रहा है सच है? अभिनव चुप-चाप खड़ा रहा। उसकी खामोशी से टीचर समझ गए कि सुब्रत की जीत हो गई। परमिशन देते
हुए उन्होंने कहा, “जल्दी
आना।”
रोल नंबर 3 टीचर ने आवाज़ लगाई।
रोल नंबर 3 ने टीचर से कहा,
“सर मैं थोड़ी देर बाद पढ़ूँगी। मुझे ज़रा नर्वस फील हो रहा है।”
रोल नंबर 4 टीचर ने आवाज़ लगाई।
सुब्रत ने कहा, “सर वो तो
टॉइलेट गया है।”
ओ हो! रोल नंबर
5
सर मैंने पूरा नहीं लिखा है? क्यों? वो सर . . .
वो कुछ और बोल पाता इससे पहले ही शिक्षक
ने कहा, “ठीक है जितना लिखा है उतना ही पढ़ो।”
रोल नंबर 5 ने सिर्फ तीन लाइनें
पढ़ीं
“बस इतना ही”, टीचर ने कहा
तभी दरवाजे पर रोल नंबर चार, “मे आई कम इन सर कह कर अंदर आने की परमिशन माँग रहा था।”
“आओ और सबको ध्यान से सुनो”, टीचर
ने अभिनव से कहा।
रोल नंबर 6
“सर मैंने होमवर्क पूरा नहीं किया है।”, रोल नंबर 6 ने कहा
टीचर ने बिना कुछ पूछे उसे खड़े रहने का आदेश दिया। ऐसा देख बाकी बच्चों
में भी डर का संचार हो गया।
रोल नंबर 7
सुब्रत ने फिर से कहा, “सर वो ओलेम्पियड एग्जाम देने गया है।”
रोल नंबर 8
रोल नंबर 8 ने मोटी-सी लंबी कॉपी अपने साथ लाई और टीचर के पीछे खड़े होकर पढ़ना शुरू कर दिया। पीछे बैठे कुछ बच्चे
हँस रहे थे। निबंध में प्रयुक्त शब्द और सेंटेंस फोरमेशन काफी ही उन्नत थे। टीचर ने
यह जान लिया कि इसने किसी निबंध की किताब से हू-ब-हू उतार दिया है। पर वास्तव में बात कुछ और ही थी। उसने तो अपनी कॉपी में किताब
को ही उतार लिया था जिसकी वजह से उसकी कॉपी मोटी हो गई थी। टीचर उसे देखकर कुछ प्रतिक्रिया
करते तभी एक और टीचर क्लास में प्रवेश कर गए। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा,
“सर आप मेरी 6th पीरियड 9th
क्लास में ले लेंगे क्या?” ले लूँगा अगर मेरी पीरियड
न हुई तो। नहीं है सर, मैंने देख लिया है। “श्रीवास्तव सर पूरी तौयरी के साथ आते हैं।” एक बच्चे
ने धीमी आवाज़ में कहा। “ठीक है सर ले लूँगा”, शिक्षक ने कहा। छात्र के हाथ में कॉपी के अंदर की
किताब को देखकर श्रीवास्तव सर वस्तु स्थिति को समझ गए और अल्ट्रा मॉडर्न स्टूडेंट का
खिताब देते हुए क्लास से बाहर निकल गए।
टीचर ने अपनी डायरी में कुछ लिखा और उसे जाने को कहा।
बच्चों में खुसुर-फुसुर होने
लगी।
इतने में टीचर रोल नंबर ही भूल गए कि किसे बुलाना है।
“रोल नंबर 9”, इस बार सुब्रत ने कहा।
रोल नंबर 9 आया। उसकी कॉपी
की जिल्द कुछ अजीब लग रही थी। उसने निबंध पढ़ना शुरू ही किया था कि तभी रामू
(चपरासी) हाथ में अरेंजमेंट रेजिस्टर लेकर क्लास
में आ गया। 6th पीरियड 10th क्लास मेडम शुक्ला। टीचर ने
रामू से कहा, “मुझे लगता है कि कुछ गलती है, मेडम शुक्ला तो आईं हैं मैंने उन्हें सुबह देखा था।” “वो हाफ सीएल लेकर घर चली गई हैं। आज
उनके घर में विष्णुजी की कथा है। छुट्टी के बाद सभी को प्रसाद सेवन के लिए बुलाया है।”,
रामू ने जानकारी दी।
पहले बेंच में बैठे बच्चे मूक रूप से सब देख रहे थे। क्लास में
धीरे-धीरे शोर बढ़ रहा था। बच्चों की तरफ देखते हुए टीचर ने रामू
से कहा कि श्रीवास्तव सर से कह देना कि मैं उनका क्लास नहीं ले पाऊँगा। सिर हिलाकर
हामी भरते हुए रामू क्लास से बाहर निकल गया।
बच्चों को डाँटते हुए, टीचर ने कहा, “ आपलोगों को कितनी बार कहा हूँ कि कोई
भी प्यून आए उसे गुड मॉर्निंग अंकल कह कर विश किया करो। ये भी स्कूल के महत्त्वपूर्ण
सदस्य हैं।”
“शोरी सर”, बच्चों ने धीमी आवाज़
में कहा।
शिक्षक ने बच्चों को फिर से पढ़ने को कहा, छात्र ने फिर से पढ़ना शुरू किया शब्द, वाक्य और प्रोक्ति ठीक वैसे ही लग रहे थे जैसा रोल नंबर 1 ने पढ़ा था। वास्तव में कॉपी रोल नंबर 1 की ही थी बस जिल्द
बदल दी गई थी।
“अभी से ही धोखाधड़ी शुरू कर दी श्याम सरकार”, टीचर ने कहा ।
अपनी डायरी में टीचर ने फिर से कुछ लिखा
बच्चों में फिर-से खुसुर-फुसुर होने लगी
शोरी सर
जाओ बैठो।
रोल नंबर दस
रोल नंबर दस रमन का था जो कक्षा में कभी भी होमवर्क पूरा कर कर नहीं
लाता था। शिक्षक को लगा कि उन्हें निराशा होगी परंतु वास्तव में कहानी की शुरूआत तो
यहीं से होती है। अब तक का वाक्या तो क्लास रूम की वास्तविक झाँकी थी।
रोल नंबर दस आता है और टीचर से कहता है, “सर मैंने निबंध तो लिखा है पर शीर्षक ‘सफलता’ नहीं
‘फेलियर का पोस्टमॉर्टम’ है।” कुछ बच्चे यह शीर्षक सुन कर दाँत खिसोड़ने लगे। टीचर ने शीर्षक दोहराते हुए
कहा,“फेलियर का पोस्टमॉर्टम, अच्छा ठीक
है पढ़ो।”
दुनिया
में ऐसा कोई भी नहीं होगा जिसने असफलता का चेहरा न देखा हो। हम सबने किसी न किसी रूप
में असफलता का स्वाद चखा है। स्वाद चखने के बाद कितनों ने प्रयास करना ही बंद कर दिया चाहे
वह आदमी हो या हाथी। परंतु कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने असफलता का पोस्टमॉर्टम किया।
किसी मृतक के शरीर का पोस्टमॉर्टम करने के बाद यह पता चल जाता है कि मृतक की मौत का
सटीक कारण क्या था। ठीक
उसी प्रकार असफलता का पोस्टमॉर्टम करने के बाद हमें भी यह पता चल जाता है कि हमने कहाँ-कहाँ गलतियाँ की जिसकी वजह से सफलता हमें नहीं मिली। जिन्होंने भी असफलता का
पोस्टमॉर्टम किया उनका नाम इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है जिनमें
आइन्स्टाइन, सीवी रामन, गेलेलियो,
एडिसन, सूरदास, मिलटन और
न जाने कितने।
सफलता
के लिए हमें चाहिए कि हम अपने अंदर एक ऐसी मशीन फिट करें जो क्या, क्यों, और कैसे प्रश्नों का उत्पादन करे। क्योंकि ये
ही तीन ऐसे शब्द हैं जो सफल होने के साथ-साथ असफलता का पोस्टमॉर्टम
करने में भी बहुत मददगार साबित होते हैं। इतिहास के पन्ने इन प्रमाणों से भरे पड़े हैं
कि जितने लोगों ने भी इन प्रश्नों का जितना अनुसंधान करने की कोशिश की है वह उतना ही
बड़ा आविष्कारक, उद्भावक, अद्वितीय और महान
बना है।
इसकी
शुरुआत हमें स्कूल के स्तर से करनी होगी क्योंकि इस उम्र में हममें जोश अधिक और ज़िम्मेदारी कम होती है। हमें इसी स्तर से क्या,
क्यों और कैसे को स्पष्ट करना सीखना होगा। हमारी कक्षा में ऐसे अनेक छात्र
होते हैं जिनके मन में अनेक सवाल उठते हैं। टीचर के पढ़ा देने के बाद वे सिर हिलाकर
ये स्वीकार करते हैं कि उन्हें पाठ समझ में आ गया है। परंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता।
उन्हें पाठ पूरा समझ में नहीं आया होता है पर उनमें टीचर से सवाल पूछने की हिम्मत नहीं
होती इसका एकमात्र कारण है कि क्लासमेट क्या सोचेंगे? और दूसरे
क्लासमेट भी यही सोचते हैं कि वो क्या सोचेगा? पर सच तो यह है कि यहाँ कोई दूसरे
के लिए नहीं बल्कि सब अपने लिए आते हैं। सबको पाठ पढ़ना होता है। फिर भी दूसरे क्या
सोचेंगे की चिंता में हम अपना नुकसान करते रहते हैं। चीन और जापान में एक कहावत बहुत
प्रसिद्ध है, “अगर आप एक सवाल पूछते हैं तो आप उस सवाल का जवाब
मिलने तक बेवकूफ रह सकते हैं पर जैसे ही सवाल का जवाब मिला आप बेवकूफ नहीं रह जाते
परंतु जिसके मन में सवाल है और दूसरे क्या सोचेंगे इस डर से अगर वह सवाल पूछता ही नहीं
हैं तो वह जीवन भर के लिए बेवकूफ बना रहता है।” यहाँ हमें चाहिए
कि हम अपनी असफलता का पोस्टमॉर्टम करें और जितना हो सके आत्ममंथन करें।
आज के
दौर में सब बेतहाशा भागे जा रहे हैं उसी प्रसिद्ध कहानी की तरह जिसमें एक खरगोश भागता
है और उसके पीछे-पीछे जंगल के सारे जानवर। पता करने पर पता चलता
है कि सब इसलिए भागे जा रहे हैं क्योंकि सब भाग रहे हैं। उन धावकों को यह पता ही नहीं
कि भागना समस्या का समाधान नहीं है। उनसे पूछने पर वे बेधड़क कहते हैं कि अगर न भागे
तो पीछे रह जाएँगे। प्रतियोगिता मेरा मतलब है कोंपीटीशन का समय है भागना तो पड़ेगा ही।
पर सच तो यह है कि इतनी भाग-दौड़ करने के बाद भी एक अच्छी नौकरी
पाने के बाद भी उन्हें
चैन नहीं। इसका कारण है कि उन्होंने कभी भी अपने अंदर की चाह अपने डिजायर को जानने
की कोशिश ही नहीं की। और सच पूछिए तो तो कोंपीटीशन कभी भी रहा ही नहीं है। ध्यान देने
की बात है कि आज तक कभी भी किसी महान व्यक्ति, वैज्ञानिक,
उद्भावक, समाज सुधारकों के बीच कभी भी किसी भी
तरह का कोई भी कोंपीटीशन रहा ही नहीं है। अगर रहा भी है तो उनका कोंपीटीशन खुद से ही
रहा है। इसी की वजह से ही आज वे हमारे बीच न होते हुए भी है। वे अमर हैं। ये सब महान
व्यक्ति की श्रेणी में आएँगे प्रतिष्ठित व्यक्तियों से भी बहुत आगे क्योंकि महान और
प्रतिष्ठित व्यक्ति में यह अंतर होता है कि महान व्यक्ति हमेशा समाज का नौकर बनने को
तैयार होता है जबकि प्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि अनेकों
ने कई बार प्रयास किए फिर भी वह फेल हो गया अब आप क्या कहेंगे? तो मैं यह कहूँगा कि वे फेल नहीं हुए बल्कि उनके पास अनुभव का खजाना है जिसका
प्रयोग कर वे एक सफल कोच बन सकते हैं। रामानन्द अचरेकर इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
जैसा
कि मैंने कहा सफल बनने के लिए हमें असफलता का पोस्टमॉर्टम करना पड़ेगा। हमें यह जानना
होगा कि हम असफल क्यों हो रहे हैं? क्या हम वो ही कर रहे हैं
जो हम करना चाहते हैं? अगर हाँ तो देर-सबेर
सफलता मिलेगी ही मिलेगी परंतु अगर हम वो नहीं कर रहे जो हम करना चाहते हैं, तो हमें कभी भी सफलता नहीं मिलेगी।
इसके लिए हमें अपने अंदर की आवाज़ अपनी डिजायर को जानना होगा। मान लीजिए आप गिटार बजा
रहे हैं। मगर आपके गिटार बजाने के पीछे का उद्देश्य लड़कियों को इम्प्रेस करना है तो
वह आपकी असली डिजायर नहीं है। मगर आप गिटार बजा रहे हैं और उसमें खो जाते हैं तो यही
है आपकी अंदर की आवाज़। यही आपको विश्व के श्रेष्ठ संगीतकारों की सूची में लाकर खड़ा
कर देगा। आप को जिस काम को करने में भी बड़ा मज़ा आता है। जिसे करने पर न आपको समय का
ख्याल रहता है और न ही इसका कि दूसरे क्या सोचेंगे। वही आपकी असली डिजायर है। इस कक्षा
में घूमता हुआ ये फैन, कबर्ड, चाक,
डस्टर, स्मार्ट बोर्ड, पेंसिल,
कलम, किताब ये सब किसी न किसी के डिजायर रहे होंगे
जिसको उन्होंने सच कर दिया है। उनका डिजायर बड़ा हो गया है और हमारे सामने है। किसी
ने सच ही कहा है हर हकीकत पहले एक सपना होता है और जब करने वाले इस सपने को पूरा करने
के संकल्प बना लेते हैं तो वह हकीकत में बदल जाते हैं। दुनिया के किसी भी बड़े व्यक्ति
का इतिहास पढ़िए आपको यह बात समझ में आ जाएगी।
तभी
घंटी बजती है, सारे बच्चे अनिच्छा प्रकट करते हैं। वे सभी इस
निबंध को पूरा सुनना चाहते हैं, यहाँ तक कि टीचर भी। दरवाजे पर
सोमा मेडम आती हैं। टीचर उनसे यह कहते हैं कि मेडम आप थोड़ी देर के लिए क्लास
7b में जाएँगी मैं थोड़ी देर में क्लास समाप्त कर कर आता हूँ। मेडम उनकी
बात मान लेती है। टीचर छात्र को आगे पढ़ने का निर्देश देते हैं।
रमन
आगे पढ़ता है, आज के युग में जन समुदाय का बहुत बड़ा हिस्सा यह
मान बैठा है कि जिनके पास बहुत धन है या जिनके पास बहुत संपत्ति है वे ही सफल हैं पर
सच्चाई तो इससे कोसों दूर है। धनी वो नहीं है जिसने बहुत धन एकत्रित कर लिया है बल्कि
असली धनी तो वो है जिसने लोगों के भलाई के लिए धन का दान किया हो। और जहाँ तक सफलता
का प्रश्न है तो यह चरित्र
के साथ आती है। रात को चोर भी चोरी करने के लिए निकलता है और चोरी कर जब वह सही-सलामत वापस आ
जाता है तो लोग उसे भी सफल कहेंगे। परंतु वास्तव में सफलता यह नहीं है। इसमें चरित्र का नाश होता है। सफलता और
चरित्र एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सफलता तो वह है जिसमें आप अपना सब कुछ गवाँ कर
भी मुस्कराते हैं और हँसते-हँसते मौत को गले लगाते हैं। आप लोगों
में से जिन्होंने ‘लिंगा’ फिल्म देखी होगी उन्हें यह पता होगा।
आज के
युग की इस अंधी दौड़ में लोगों के मन में ऐसे विचार आने ही बंद हो गए हैं। और मेरा मानना तो यह है कि अगर आज समाज को कोई नया
रुख दे सकता है तो वह है टीचर और अभिभावक। इसमें भी एक समस्या यह है कि आज के विद्यालय
विद्या का आलय नहीं बल्कि शिक्षालय बन चुके हैं जिसमें केवल विषय से संबंधित ज्ञान
दिया जाता है। और यही कारण है कि कितने मेधावी छात्र अच्छे पद पर पहुँचने के बाद भी समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों
से विमुख होते दिखाई पड़ते हैं। विद्या इसमें अहम भूमिका निभा सकती है, विद्या वह है जो हमें सही और गलत में अंतर करना सिखलाती है। विद्या वो है जो
हमें समस्याओं से भागना या उसके सामने घुटने टेकना नहीं बल्कि उसे अपनी प्रगति का घटक
मानकर उससे लड़ना सिखाती है। विद्या वो है जो विषम परिस्थितियों में भी नैतिकता को डाँवाडोल
नहीं होने देती। विद्या वो है जो ‘सरवाइवल ऑफ थे फिटटेस्ट’
की नीति का त्याग कर ‘सरवाइवल ऑफ द आल लिविंग बिंग्स’
और ‘लीव एंड लेट लीव’ की
नीति अपनाना सिखाती है। सा विद्या या विमुक्तये अर्थात विद्या वह है जो जो मानव को
सभी बंधनों से मुक्त करती है।
आज के
इस निबंध वाचन कक्षा में मैं अपने निबंध के अंतिम चरण में बस यही कहना चाहूँगा कि हम
सबमें काबलियत होती है
बस हमें उस काबलियत को ढूँढ़ना है। आज मैंने जितनी बातें भी इस निबंध में लिखी हैं वह
मैंने फेलियर का पोस्टमॉर्टम करने के बाद जाना है।
अंत
में टीचर ने सभी छात्रों से कहा, “मैं किसी को नहीं बदल सकता।
मेरा अधिकार सिर्फ मुझपर है। लेकिन मैं अपने आपको बदल सकता हूँ। रमन के आज के निबंध
के बाद मैं यह पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि लोग बदलते हैं।”
अविनाश रंजन गुप्ता
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