Aatmtran By Avinash Ranjan Gupta
1. कवि किससे और क्या प्रार्थना कर रहा है?
2. ‘विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना
नहीं’ - कवि इस पंक्ति
के द्वारा क्या कहना चाहता है?
3. कवि सहायक के न मिलने पर क्या प्रार्थना करता
है?
4.अंत में कवि क्या
अनुनय करता है?
5. ‘आत्मत्राण’ शीर्षक की
सार्थकता कविता के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
6. अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए आप प्रार्थना के अतिरिक्त
और क्या—क्या प्रयास करते
हैं? लिखिए।
7. क्या कवि की यह प्रार्थना आपको अन्य प्रार्थना
गीतों से अलग लगती है? यदि हाँ, तो कैसे?
1.
कवि ईश्वर से यह प्रार्थना कर रहा
है कि ईश्वर उसे दैनिक जीवन की विपदाओं को दूर करने में भले ही मदद न करें पर वह इतना
अवश्य चाहता है कि ईश्वर उसे इतनी शक्ति ज़रूर दें ताकि वे इन विपदाओं से घबराएँ नहीं
और इन पर विजय प्राप्त कर सके। उसका अपने बल पौरुष पर भरोसा कायम रहे और वह अच्छे स्वास्थ्य
की कामना भी प्रभु से करता है।
2.
कवि इस पंक्ति के द्वारा यह कहना
चाहता है कि वह विपदाओं से स्वयं संघर्ष करेगा। उसे इसके लिए ईश्वर की मदद नहीं चाहिए।
वह तो आत्मनिर्भर बनना चाहता है। अगर कवि ईश्वर से कुछ भी चाहता है, तो वह यह कि प्रभु
उसे इतनी शक्ति दें कि वह इन विपदाओं का सामना डटकर कर सके।
3.
कवि सहायक के न मिलने पर यह प्रार्थना
करता है कि उसका बल-पौरुष हिलना नहीं चाहिए। यदि उसका बल-पौरुष उसका आत्मविश्वास कायम
रहा तो वह सहायक के बिना भी अपनी समस्याओं को आसानी से सुलझा सकता है।
4.
अंत में कवि यह अनुनय करता है कि प्रभु उसे इतना निर्भय बना दें ताकि वह जीवन भार
को आसानी से वहाँ कर सके। उसका भार हल्का भले ही न हो, पर उससे वह डरे भी नहीं। वह
प्रभु से यह भी प्रार्थना करता है कि सुख के समय भी वह ईश्वर को याद करता रहे और दुख
के समय भी ईश्वर पर उसका विश्वास बना रहे।
5.
प्रस्तुत कविता में जीवन के विविध
पक्षों का उल्लेख मिलता है, जैसे- दुख, तकलीफ आदि से जूझना और साथ ही साथ उस पर विजय
पाना। संसार में कुछ लोग ऐसे भी होते है जो समस्याओं के आगे घुटने टेक देते हैं। पर
इस कविता में मनुष्य को संघर्षशील बनने का संदेश दिया गया है। कवि अपने माध्यम से पूरे
जन समुदाय को यह नीति वाणी देना चाहते है कि जीवन है तो उसमें दुखों का आना-जान तो
लगा ही रहेगा इसके लिए हमें चाहिए कि हम भगवान से यह विनती करें कि हमे उस दुख से लड़ने
की शक्ति मिले न कि भगवान खुद उस दुख को कम कर दें। अतः शीर्षक सार्थक है।
6.
मेरा मानना है कि अपनी इच्छाओं की
पूर्ति के लिए ईश्वरीय कृपा के साथ-साथ सतत प्रयस्स और परिश्रम नितांत आवश्यक है। कर्म
के बिना फल की कामना करना सर्वथा व्यर्थ है।
7.
हाँ, मुझे कवि कवि कि यह प्रार्थना
अन्य प्रार्थना गीतों से अलग लगती है। इसका
कारण यह है कि अन्य प्रार्थना गीतों में ईश्वर से संकट, रोग, हानि दूर करने की विनती
होती है, किन्तु इस गीत में कवि ने इन सबसे लड़ने की शक्ति माँगी है। दूसरी तरफ हमें
ईश्वर ने ऐसी सारी चीज़ें दे दी है जिसको पाने के बाद हमें और कुछ नहीं चाहिए और वह
है हमारा शरीर। मानव शरीर मानव को ईश्वर की सबसे अमूल्य भेंट हैं। इस प्रकार यह एक
प्रकार की प्रार्थना है।
(ख) निम्नलिखित अंशों का भाव स्पष्ट कीजिए -
1. नत शिर होकर सुख के दिन में
तव मुख पहचानूँ छिन—छिन में।
2. उठानी
पड़े जगत् में लाभ अगर वंचना रही
तो भी मन
में ना मानूँ क्षय।
3. तरने की हो शक्ति अनामय
मेरा भार अगर लघु करके न दो
सांत्वना नहीं सही।
1.
इस काव्यांश का भाव यह है कि कवि यहाँ सुख के दिनों में भी प्रभु का स्मरण बनाए
रखना चाहता है जबकि कुछ लोग केवल दुख के क्षण में ही प्रभु का स्मरण करते हैं।
2.
कवि लाभ-हानि की परवाह नहीं करना चाहता। संसार से भले ही उसे धोखा मिले फिर भी
वह अपने मन कि दृढ़ता को कम नहीं होने देना चाहता। वह मन मे क्षय की भावना नहीं लाएगा
चाहे उसे हानि उठानी पड़े या मुसीबतों का सामना करना पड़े।
3.
कवि जीवन भार को हल्का करने की प्रार्थना ईश्वर से नहीं करता, बल्कि वह तो
भव-सागर में तैरने की शक्ति चाहता है और अच्छे स्वास्थ्य की कामना करता है। तभी वह
जीवन भार को वहाँ कर पाएगा।
Comments
Post a Comment