नदी और कुआँ Nadi Aur Kuan By Avinash Rankan Gupta


नदी और कुआँ
एक बार नदी और कुएँ में बातचीत हो रही थी। नदी अपने विस्तृत आकार और क्षेत्रफल, मीठे जलदान और प्रवाह के कारण थोड़ी मद में चूर थी। कुएँ ने कहा, “आकार में मैं भले ही तुमसे बहुत छोटा हूँ, पर मुझमें ठहराव है और तुम बड़ी हुई तो क्या हुआ तुममें भटकाव है। तुम ऊपर से नीचे जाती हो और खारी हो जाती हो और मैं नीचे से ऊपर जाता हूँ फिर भी मीठा का मीठा ही रहता हूँ। नि:संदेह तुम बहुतों का उपकार करती हो और प्यासे के पहुँच जाती हो मैं बहुत कम लोगों का उपकार कर पाता हूँ मगर प्यासा मेरे पास आता है। हे सरिता! दुनिया बादल चुकी है, समृद्धि रूपी पिशाचिनी मानवता को निगल चुकी है। तुम सबकी होकर भी किसी की न रही, मैं कुछ का होकर ही रहता हूँ सही।”

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