दूसरों को न सुधारें Doosaron Ko Na Sudhre By Avinash Ranjan Gupta


दूसरों को न सुधारें            
      इस शीर्षक से बहुत से पाठकों को मेरे प्रति असंतुष्टि का भाव पैदा हो सकता है। परंतु मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि इस उक्ति में सत्यता की मात्रा अधिकांश है जबकि असत्यता की मात्रा अल्पांश में। जब हम किसी ऐसी जगह पौधे को अंकुरित होते हुए देखते हैं जहाँ उसे अंकुरित नहीं होना चाहिए तो दो अंगुलियों की ताकत से उसे निर्मूल कर दिया जाता है। वही पौधा जब डेढ़ हाथ का हो जाता है तो हमें दोनों हाथों की ताकत लगाकर उसे उखाड़ना पड़ता है और जब तना मोटा हो जाता है तो कुल्हाड़ी की मदद से उसे काटा जाता है जिसमें समय और शक्ति तो लगती ही है फिर भी जड़ें मिट्टी के अंदर दबी ही रहती हैं और उपयुक्त जलवायु मिलने पर उसके पुनः फलित होने की भी संभावना भी बनी रहती हैं।    
      आदत के साथ भी लगभग ऐसा ही है। आदत जब अपने शुरुआती दौर में होती है तो उसे बदलना आसान होता है, आदत की आदत लगने के बाद थोड़ा मुश्किल और आदत जब व्यवहार में उतर आए तो प्राय: असंभव। अगर ये आदतें अच्छी हों तो आपका भावी जीवन भव्य बन जाएगा और अगर ये आदतें गलत हों तो आपका जीवन पछतावे से भर जाएगा। अगर आपकी आदत अपने प्रौढ़ावस्था (Matured) तक पहुँच जाती है तो आपका अपने आप को सुधार पाना लगभग असंभव है। अगर कोई दूसरा आपको सुधारने में अपना समय व्यय करता है तो उसका यह कार्य एक ऐसे युद्ध लड़ने के बराबर है जिसमें जीत पाना लगभग नामुमकिन है और अगर जीत हासिल भी हो जाए तो युद्ध का नुकसान जीत से ज़्यादा होगा।
      कुछ आदर्शवादी लोग यह ज़रूर कहेंगे कि हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। मैं यह स्वीकार भी करता हूँ कि हमें सफलता देर-सवेर मिल ही जाएगी। परंतु विचारणीय यह भी है कि दूसरों को सुधारने में अपना बहुमूल्य समय व्यय करने से कहीं बेहतर है कि हम अपने आप को इस काबिल बना लें कि लोग हमें देखकर हमसे कुछ सीखने की उम्मीद रखें।
      जब हम किसी के ऊँचे पद, लंबी कार, बड़ा घर, शानो-शौकत देखते हैं तो हमारी भी इच्छा होती है कि हमारे पास भी ये सब हों। परंतु हमारी इच्छाएँ इसलिए शिथिल पड़ जाती हैं क्योंकि हम अपने आपको कम आँकते हैं। हमें लगता है कि उनमें जैसी प्रतिभा, व्यक्तित्व और जुझारू प्रवृत्ति हैं, हममें नहीं हैं। दूसरी तरफ जब हम किसी के हाथ में एक अच्छा मोबाइल देखते हैं तो हमें भी वैसा ही मोबाइल खरीदने की इच्छा होती है और देर-सवेर हम वैसा ही मोबाइल खरीद लेते हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि हम अपने आपको छोटे उद्देश्यों के लिए काबिल समझते हैं पर बड़े उद्देश्यों के लिए अपने आपको कमजोर। अब आप ही यह निर्णय कीजिए कि जो व्यक्ति लंबे उद्देश्यों के लिए अपने आपको असमर्थ महसूस कर रहा है, जो दूसरों की तरक्की से या तो जलता है या फिर वहाँ तक पहुँचने में होने वाली समस्याओं के सामने घुटने टेक देता है, उसे आप क्या सुधारेंगे। ऐसे लोगों के पास केवल बहाने होते हैं, योजनाएँ नहीं।
      मेरा यह मानना है कि Creation is better than correction. आप सृष्टिकर्त्ता बनिए सुधारक नहीं। आनेवाले दिनों में सृष्टि ही इतनी समृद्ध और सुखदायी हो जाएगी सुधारकों की आवश्यकता न्यून होती दिखेगी।
     


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