Chapter – 8 अष्टमः पाठः लौहतुला Ashtam Paatha: Louhtula NCERT Shemushi Class IX (Subject Code-122)


अष्टमः पाठः
लौहतुला
प्रस्तुत पाठ विष्णुशर्मा द्वारा रचितपञ्चतन्त्रम्नामक कथाग्रन्थ केमित्रभेदनामक तन्त्र से सङक्लित है। इसमें विदेश से लौटकर जीर्णधन नामक व्यापारी अपनी धरोहर (तराजू) को सेठ से माँगता है।तराजू चूहे खा गये हैंऐसा सुनकर जीर्णधन उसके पुत्र को स्नान के बहाने नदी तट पर ले जाकर गुफा में छिपा देता है। सेठ द्वारा अपने पुत्र के विषय में पूछने पर जीर्णधन कहता है किपुत्र को बाज उठा ले गया है।इस प्रकार विवाद करते हुए दोनों न्यायालय पहुँचते हैं जहाँ धर्माधिकारी उन्हें समुचित न्याय प्रदान करते हैं।
आसीत् कस्ंिमश्चिद् अधिष्ठाने जीर्णधनो नाम वणिक्पुत्रः। स च विभवक्षयाद्देशान्तरं गन्तुमिच्छन् व्यचिन्तयत्
यत्र देशेऽथवा स्थाने भोगा भुक्ताः स्ववीर्यतः।
तस्मिन् विभवहीनो यो वसेत् स पुरुषाधमः।।
तस्य च गृहे लौहघटिता पूर्वपुरुषोपार्जिता तुलासीत्। तां च कस्यचित् श्रेष्ठिनो गृहे निक्षेपभूतां कृत्वा देशान्तरं प्रस्थितः। ततः सुचिरं कालं देशान्तरं यथेच्छया भ्रान्त्वा पुनः स्वपुरमागत्य तं श्रेष्ठिनमुवाच“भोः श्रेष्ठिन्! दीयतां मे सा निक्षेपतुला।’’ स आह“भोः! नास्ति सा, त्वदीया तुला मूषकैर्भक्षिता’’ इति।
जीर्णधन आह”भोः श्रेष्ठिन्! नास्ति दोषस्ते, यदि मूषकैर्भक्षितेति। ईदृगेवायं संसारः। न किञ्चिदत्र शाश्वतमस्ति। परमहं नघां स्नानार्थं गमिष्यामि। तत् त्वमात्मीयं शिशुमेनं धनदेवनामानं मया सह स्नानोपकरणहस्तं प्रेषय’’ इति।
स श्रेष्ठी स्वपुत्रमुवाच”वत्स! पितृव्योऽयं तव, स्नानार्थं यास्यति, तद् गम्यतामनेन सार्धम्’’ इति।
अथासौ वणिक्शिशुः स्नानोपकरणमादाय प्रहृष्टमनाः तेन अभ्यागतेन सह प्रस्थितः। तथानुष्ठिते स वणिक् स्नात्वा तं शिशुं गिरिगुहायां प्रक्षिप्य, तद्द्वारं बृहच्छिलयाच्छाघ सत्त्वरं गृहमागतः।
पृष्टश्च तेन वणिजा”भोः! अभ्यागत! कथ्यतां कुत्र मे शिशुर्यस्त्वया सह नदीं गतः’’? इति।
स आह”नदीतटात्स श्येनेन हृतः’’ इति। श्रेष्ठ्याह — ‘ट्टमिथ्यावादिन्! किं क्वचित् श्येनो बालं हर्तुं शक्नोति? तत् समर्पय मे सुतम् अन्यथा राजकुले निवेदयिष्यामि।’’ इति।
स आह”भोः सत्यवादिन्! यथा श्येनो बालं न नयति, तथा मूषका अपि लौहघटितां तुलां न भक्षयन्ति। तदर्पय मे तुलाम्, यदि दारकेण प्रयोजनम्।’’ इति।
एवं विवदमानौ तौ द्वावपि राजकुलं गतौ। तत्र श्रेष्ठी तारस्वरेण प्रोवाच—“भोः! अब्रह्मण्यम्! अब्रह्मण्यम्! मम शिशुरनेन चौरेणापहृतः’’ इति।
अथ धर्माधिकारिणस्तमूचुः”भोः! समर्प्यतां श्रेष्ठिसुतः’’
स आह”किं करोमि? पश्यतो मे नदीतटाच्छ्येनेन अपहृतः शिशुः’’। इति।
तच्द्द्रुत्वा ते प्रोचुःभोः! न सत्यमभिहितं भवताकिं श्येनः शिशुं हर्तुं समर्थो भवति?
स आहभोः भोः! श्रूयतां मद्वचः
तुलां लौहसहस्रस्य यत्र खादन्ति मूषकाः।
राजन्तत्र हरेच्छ्येनो बालकं, नात्र संशयः।।
ते प्रोचुः”कथमेतत्’’
ततः स श्रेष्ठी सभ्यानामग्रे आदितः सर्वं वृत्तान्तं निवेदयामास। ततस्तैर्विहस्य द्वावपि तौ परस्परं संबोध्य तुलाशिशुप्रदानेन सन्तोषितौ।


शब्दार्थाः
अधिष्ठाने                 स्थाने                               स्थान पर
विभवक्षयात्            धनाभावात्                        धन के अभाव के कारण
स्ववीर्यतः               स्वपराक्रमेण                      अपने पराक्रम से
लौहघटिता              तुला लौहनिर्मिता तुला         लोहे से बनी हुई तराजू
निक्षेपः                    न्यासः                              धरोहर
भ्रान्त्वा                   भ्रमणं कृत्वा                      पर्यटन करके
                             (देशाटनं कृत्वा)
त्वदीया                   तव, भवदीया                     तुम्हारी
ईदृक्                      एतादृशः                           ऐसा  ही
एनम्                       एतम्/एनम् च पुंसि              इसे, एतत् शब्द पुं. द्वि. वि
                             द्वितीयैकवचने उभे एव         में एतत्/एनम् दोनों ही
                             एव रूपे भवतः।                 रूप होते हैं।
आत्मीयम्               आत्मसम्बन्धि                   अपना
स्नानोपकरणहस्तम्    स्नानसामग्री हस्ते यस्य  सः, तम्      स्नान की सामग्री से युक्त हाथ वाला।
वणिजा                   व्यापारिणा                         व्यापारी के द्वारा
श्येनः                      हिंसकप्रवृत्तिकः पक्षिविशेषः          बाज
अब्रह्मण्यम्              अन्यायरूपम् अनुचितम्                 घोर अन्याय
समर्पय                    देहि                                 दो
विवदमानौ               कलहं कुर्वन्तौ                    झगड़ा करते हुए
तारस्वरेण                च्चस्वरेण                         जोर से
ऊचुः                      अवदन्                             बोले
अभिहितम्               कथितम्                           कहा गया
मद्वचः                    मम वचनानि                      मेरी बातें
आदितः                  प्रारम्भतः                          आरम्भ से
निवेदयामास            निवेदनमकरोत्                   निवेदन किया
विहस्य                   हसित्वा                            हँसकर
संबोध्य                   बोधयित्वा                        समझा बुझा कर


अभ्यासः
1. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत
(क) देशान्तरं गन्तुमिच्छन् वणिक्पुत्रः किं व्यचिन्तयत्?
(ख) स्वतुलां याचमानं जीर्णधनं श्रेष्ठी किम् अकथयत्?
(ग) जीर्णधनः गिरिगुहाद्वारं कया आच्छाघ गृहमागतः?
(घ) स्नानानन्तरं पुत्रविषये पृष्टः वणिक्पुत्रः श्रेष्ठिनं किम् उवाच?
(ङ) धर्माधिकारिभिः जीर्णधनश्रेष्ठिनौ कथं सन्तोषितौ?
2. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) जीर्णधनः विभवक्षयात् देशान्तरं गन्तुमिच्छन् व्यचिन्तयत्।
(ख) श्रेष्ठिनः शिशुः स्नानोपकरणमादाय अभ्यागतेन सह प्रस्थितः।
(ग) श्रेष्ठी उच्चस्वरेण उवाचभोः अब्रह्ममण्यम् अब्रह्ममण्यम्।
(घ) सभ्यैः तौ परस्परं संबोध्य तुलाशिशुप्रदानेन सन्तोषितौ।
3. अधोलिखितानां श्लोकानाम् अपूर्णोऽन्वयः प्रदत्तः पाठमाधृत्य तं पूरयत
(क) यत्र देशे अथवा स्थाने ................. भोगाः भुक्ता ................. विभवहीनः यः ........ स पुरुषाधमः।
(ख) राजन्! यत्र लौहसहस्रस्य ................ मूषकाः ................ तत्र श्येनः ................ हरेत् अत्र संशयः न।
4. तत्पदं रेखाङिक्तं कुरुत यत्र
(क) ल्यप् प्रत्ययः नास्ति
विहस्य, लौहसहस्रस्य, संबोध्य, आदाय
(ख) यत्र द्वितीया विभक्तिः नास्ति
श्रेष्ठिनम्, स्नानोपकरणम्, सत्त्वरम्, कार्यकारणम्
(ग) यत्र षष्ठी विभक्तिः नास्ति
पश्यतः, स्ववीर्यतः, श्रेष्ठिनः सभ्यानाम्
5. सन्धिना सन्धिविच्छेदेन वा रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) श्रेष्ठ्याह = ....................... + आह
(ख) ....................... = द्वौ + अपि
(ग) पुरुषोपार्जिता = पुरुष + .......................
(घ) ....................... = यथा + इच्छया
(ङ) स्नानोपकरणम् = ....................... + उपकरणम्
(च) ....................... = स्नान + अर्थम्
6. समस्तपदं विग्रहं वा लिखत
विग्रहः समस्तपदम्
(क) स्नानस्य उपकरणम् = .......................
(ख) .............. .............. = गिरिगुहायाम्
(ग) धर्मस्य अधिकारी = .......................
(घ) .............. .............. = विभवहीनाः
7. यथापेक्षम् अधोलिखितानां शब्दानां सहायतयाट्टलौहतुला’’ इति कथायाः सारांशं संस्कृतभाषया लिखत
वणिक्पुत्रः               स्नानार्थम्
लौहतुला                 अयाचत्
वृत्तान्तं                    ज्ञात्वा
श्रेष्ठिनं                     प्रत्यागतः
गतः                       प्रदानम्
योग्यताविस्तारः
ग्रन्थ परिचय
महाकवि विष्णुशर्मा (200 ई. से 600 ई. के मध्य) ने राजा अमरशक्ति के पुत्रों को राजनीति में पारंगत करने के उद्देश्य सेपञ्चतन्त्रम्नामक सुप्रसिद्ध कथाग्रन्थ की रचना की थी। यह ग्रन्थ पाँच भागों में विभाजित है। इन्हीं भागों कोतन्त्रकहा गया है। पञ्चतन्त्र के पाँच तन्त्र हैंमित्रभेदः, मित्रसंप्राप्तिः, काकोलूकीयम्, लब्धप्रणाशः और अपरीक्षितकारकम्। इस ग्रन्थ में अत्यन्त सरल शब्दों में लघु कथाएँ दी गयी हैं। इनके माध्यम से ही लेखक ने नीति के गूढ़ तत्त्वों का प्रतिपादन किया है।
भावविस्तारः
लौहतुलानामक कथा में दी गयी शिक्षा के सन्दर्भ में इन सूत्तिQयों को भी देखा जाना चाहिए।
1. न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः।
    व्यवहारेण जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।।
2. आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।
भाषिकविस्तारः
2. तसिल् प्रत्ययपञ्चमी विभिक्त के अर्थ में तसिल् प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है।
यथाग्रामात् ग्रामतः (ग्राम + तसिल्)
          आदेः आदितः (आदि + तसिल्)
यथाछात्रः विघालयात् आगच्छति।
          छात्रः विघालयतः आगच्छति।
इसी प्रकार गृह + तसिल् गृहतः गृहात्।
                   तन्त्र + तसिल् तन्त्रतः तन्त्रात्।
                   प्रथम + तसिल् प्रथमतः प्रथमात्।
                   आरम्भ + तसिल् आरम्भतः आरम्भात्।
3. अभितः परितः उभयतः, सर्वतः, समया, निकषा, ‘हाऔर प्रति के योग में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
यथागृहम् अभितः वृक्षाः सन्ति।
विघालयम् परितः द्रुमाः सन्ति।
ग्रामम् उभयतः नघौ प्रवहतः।
हा दुराचारिणम्।
क्रीडाक्षेत्रम् निकषा तरणतालम् अस्ति।
बालकः विघालयम् प्रति गच्छति।
नगरम् समया औषधालयः विघते।
ग्रामम् सर्वतः गोचारणभूमिः अस्ति।

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